SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रयोदश अध्ययन जिसकी हिंसा की गई है वह पुरुष भी अपने आप को इस विचार से शांत कर सकता है कि इस रूप में उदय में आया हुआ कम एक दिन मैं ने ही पहले पूर्व भव में किया है। दूसरा तो केवल विपाकोदय में निमित्त मात्र है। प्रोफेसर शुत्रिंग भी कहते हैं कि : दूसरे को हानि पहुंचाने वाला अनिष्ट कर्म उसके जीवन में विविध परिणाम लाता है। जिसको आघात लगा है वह भी अपने पूर्वकृत कर्मों को भोग रहा है 1 प्रहार करने वाला तो अपराधी है ही, किंतु जिस पर प्रहार किया गया है वह भी एकदम निदोष है ऐसी बात नहीं है। उसने भी पहले हिंसा द्वारा कर्म एकत्रित किए थे, प्रहार का तो शांत पढे अनुदीरित कर्मों को एक नई हलचल देता है। वही उदीरणा है। मूलसेके फलप्पसी मूलधाते हतं फलं । फलस्थी सिंचती मूलं फलघाती ण सिंचती ॥४॥ कर्म -मूल के सीने में काकी होती है । मूल नष्ट करने पर फल नष्ट हो जाता है। फलार्थी मूल का सिंचन करता है । फल को नष्ट करने वाला मूल का सिंचन नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: ઝાડના મૂળને પાણી પાવાથી ફળની ઉત્પત્તિ થાય છે. મૂળનો નાશ કરતાં ફળ પણ નાશ પામે છે. ફલાથી મૂળનું સિંચન કરે છે, ફળને નષ્ટ કરવાવાળો મૂળનું સિંચન કરતો નથી. टीका:-प्रस्तुत गाथा वजियपुत्र अर्हतर्षि भाषित द्वितीय अध्ययन से भा चुकी है। लुप्पती जस्स जै अत्थि, णासंते किंचि लुप्पती ।। संताती लुप्पती किंचि, णासंत किंचि लुप्पती ॥५॥ अर्थ:-जिसका जो कर्म होता है वही लुप्त हो सकता है। किन्तु असत् का लोप नहीं हो सकता है। विद्यमान में किंचित् वस्तु का लोप होता है, किन्तु असत् में से किंचित् भी लोप नहीं हो सकता है। गुजराती भाषान्तर:- જેનું જે કર્મ હેય છે તે જ લુપ્ત થઈ શકે છે. પરંતુ કર્મ ન જ હોય તે તેને લેપ થઈ શક્તો નથી. વસ્તુ હેય તે જ ક્યારેક તેનો લોપ થઈ શકે છે. પરંતુ અસમાં તો ક્યારે પણ (કોઈપણ વખતે) લોપ થઈ શકતો નથી. ___अथवा जो कर्म उदयावलिका में आता है वह क्षय होता है । जो आत्मा उदित कर्मों को शांत भाव से भोगता है वह कर्म क्षय करता है। किंतु कर्मोदय के क्षणों में जो अशान्त हो उठता है वह कर्म का क्षय नहीं करता । यद्यपि उदया. वश्था में आये हुए कर्मों को तो वह क्षय करता है। किन्तु नए कर्मों का पुनः बन्ध कर लेता है। जो कि पूर्व के कर्मों के अनुपात में कई गुना अधिक होते हैं । शांति कर्मों का क्षय करती है और अशांति कुछ भी क्षय नहीं करती। टीकाः यस्य पदस्ति कर्म तद् विपाकेन लुप्यते यदशान्त उदीरितं कर्म भवति तस्य न किंचिल्लुप्यते उदीरणावशादेव शान्तात् कर्मणः किंचिमनुष्यते किंधित, शान्तेरसंक्षितचात् विपाकात पूर्व तु न लुप्यते शान्त कर्म । टीकाकार का मत कुछ भिन्न है। जिसका जो कुछ है वह कर्म विपाक से लुभ होता है। जो कर्म अशान्तरूप में उदीरित होता है उसका अल्प रूप में भी नहीं लुप्त होते। उदीरणा के द्वारा भी कुछ कर्म लुप्त होते हैं। कुछ छप्त भी नहीं होते, उसका कारण है विपाकोदय के समय यदि आत्मा शान्त रहा तो वह कर्म क्षय करता है। असंक्षिप्त विस्तृत होने से शान्त कर्म उदीरणा में नहीं आए हुए कर्म विपाकोदय के पूर्व नष्ट नहीं हो सकते। कर्म दो रूप से क्षय होता है-एक विपाकोदय से और दूसरा उदीरणा के द्वारा । कर्म जब सहज रूप में विपाक काल समाप्त होने पर उदय में आकार क्षय हो जाता है, वह विपाकोदय है। देर से उदय में आने वाले कर्मों को जब कभी आत्मा जिस प्रक्रिया द्वारा शीघ्र उदय में ले आता है, उसे उदीरणा कहा जाता है। उदारणा के भी दो रूप हैं-पहली शान्त उदीरणा और दूसरी अशान्त उदीरणा । शान्त उदीरणा में आत्मा कर्म क्षय करता है। अशान्त उदीरणा में आत्मा कर्मों का विशेष बन्धन करता है 1 निम्न लिखित चार्ट उसे समझाने में सहायक होगा:
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy