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इसि भासिवाई
विरोध है। साथ ही यदि पट मिट्टी में पहले से ही उपस्थित है तो मकार की आवश्यकता ही क्या है और उसको खरीदने के लिए पैसे देने की ही क्या आवश्यकता है।
दार्शनिक जगत् का एक सिद्धान्त है कि बस का कभी उत्पादन नहीं होता है और सर कभी नष्ट नहीं होता है। नासतो जायते भावः नाभावो विद्यते सतः ।' असत् कभी किया नहीं जा सकता और सत् भी नहीं किया जाता। क्योंकि वह तो विद्यमान है ही । कृत का करना ही क्या है ? किन्तु यह निश्चित देखा गया है कि भव अंकुर असत नहीं है, क्यों कि मगरंपरा सहेतुक है। उसके पीछे कर्म धर्म है जो कि परंपरा का मुख्य बेद है। टीकर: सामाह्मणति शान्तय कारणं नास्ति शांतो न एवं करोतीत्यर्थः किन्तु नाश्यतो हिंसकल्प करणं भवेत् नाशयतस्तु भवः शंकरः संसारा हिंडनं भविष्यति तद् बहुधा सुरहं गुरुभिः ।
वह पति आत्म-परिणति
के लिए नहीं है क्योंकि शान्तम्यक्ति वामपरियति में लीन रहता है। हिंसक व्यक्ति के लिए विनाश ही कार्य है, विनाश के द्वारा यह आत्मा भव शंकर अर्थात् भविष्य में भी संसार में करता है ज्ञानियों ने अनेकों बार ऐसा देखा है।
संतमेतं धर्म कर्म दारेणेते वट्टियं ।
निमित्तमे परो पत्थ मज्झ मे तु पुरे फडं ॥ ३ ॥
अर्थ :- यह उपस्थित कर्म भवपरंपरा के द्वार के रूप में उपस्थित है। दूसरा तो केवल निमित्त मात्र है। मेरे शुभाशुभ विपाक के लिए तो मेरे पूर्व कृत कर्म ही उत्तरदायी है।
गुजराती भाषान्तर :
આ ઉચિત કર્મ ભવ-પરંપરાના દ્વારના રૂપમાં સ્થિત છે, આનું તે માત્ર નિમિત્તરૂપ છે. મારા શુભાશુભ વિપાક માટે તો મારા પૂર્વે કરેલા કર્મ જ જવાબદાર છે.
परंपरा कार्य है तो कर्म उसका कारण है क्योंकि कारण के अभाव में कार्य संभव नहीं है। सुख और दुःख का जो भी विपाकोदय है उसका मूल उपादन तो आत्मा है। दूसरा दो केवल निमित्त मात्र है। वृत्ति दो प्रकार की होती है। पहली शेर की और दूसरी कुते की ते पर जब कोई लाठी प्रहार करता है तब वह लाठी पर भीकता है पर ठी वाले पर नहीं। किंतु शेर को जब गोली लगती है तब वह बंदूक पर नहीं बल्कि बंदूकधारी पर ही वार करता है।
अज्ञानी मनुष्य जब कभी विपति से प्रसित होता है तो वह अशुभोदय के निमित्त बनने वाले व्यक्ति पर ही आक्रोश
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करता है उसे ही समा करना चाहता है किंतु शानसंपन्न आत्मा विपत्ति के बुरे से बुरे क्षणों में भी दूसरे पर रोष नहीं करता क्यों कि वह जानता है कि शुभ और अशुभ विपाक कर्मजन्य है। दूसरा तो निमित्तमान है। दूसरा कोई यदि सुप्त या दुःख दे सकता है तो उसका कोई नियामक नहीं रहेगा। फिर अकृत कर्म का भी फल भोगना पडेगा। साथ ही अपने सुख और दुःख दूसरे व्यक्ति के हाथ में चला जाएगा। फिर आत्मा की स्वतंत्र शक्ति ही क्या रही है अतः जैनदर्शन कहता है कि तूं अपना विधाता स्वयं है क्यों किसी के सामने भीख मांगता है ? । यदि तेरे शुभोदय है तो तुझे मिल कर ही रहेगा | फिर दूसरे के सामने गिडगिडाने से फायदा ही क्या है ? अशुभोदय में दूसरा वेदना नहीं दे सकता | हमारा ही अशुभ कर्म वेदना लेकर आया है। दूसरा तो निमित्त मात्र है। गीता भी कहती है "निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।" स अपनी अपनी नियत गति पर चल रहे हैं। हम तो उसके निमित्त मात्र ही बन सकते हैं।
टीका :- हिंसितं पुरुषं पूर्वभवे यत्कृतं तस्य स परो
त्वेवं शांत अबाधायुक्तं कर्म एतेन द्वारेण प्रकारेणोपस्थितं भवति यथा मायैष पुरः निमित्तमात्रविपाककार वितेव भवतीति ।
१ ने संत से कोलवा भत गाणं । संखाय असा तेर्सि सब्वे वि ते सचा || देवगणोरणीया सम्मनपुर होति ।
गोवि पूरा न पाहेति ॥ नथ पुढनि विसिद्धो मोति जंतेण जुग्ज अगो । जं पुण घोत्ति पुनं ण आसि पुढषी तओ अण्णो ॥
आचार्य सिद्धसेनदिवाकर :- सन्मतिप्रकरण ५०-५१-५२ ।