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प्रयोदश अध्ययन
वह पंचम गुण स्थानवों है, अतः यह भी केवल अपने ही हित को लेकर नहीं चल सकता। अपने हित के लिए दूसरे के हित में खिलवाड नहीं कर सकता। मुनि अपने अभ्युदय के लिए हर प्रकार से किसी को अनिष्ट नहीं पहुंचा सकता तो श्रावक भी इसमें आंशिक रूप से अवश्य ही बद्ध है।
क्या मुनि के द्वारा होनेवाली हिंसा ही बंध रूप है। श्रावक सर्वथा मुक्त है। मुनि त्रिकरण त्रियोग में हिंसा का प्रत्याख्यानी है तो श्रावक भी द्विकरण त्रियोग से हिंसा का प्रत्याख्यानी है । जो श्रावक लाउडस्पीकर से होने वाली हिंसा से मुनि के महानतों का पहरेदार बना रहता है और बोलता है उपाश्रय में इलेक्ट्रिक का नार भी नहीं आना चाहिए तो क्या वह श्रावक अपने भवनों को एअरकंडीशन कराने के लिए खतंत्र है। दिन और रात अनावश्यकरूप से जलने वाली इलेक्ट्रिक बत्ती और ट्यूब लाइट से होने वाली हिंसा से भी बचने का प्रयत नहीं कर सकता ?
हिंसा कहीं भी हो वह अशुभ ही है। मांग कहीं पर भी बैठ कर खाई जाए लहर अवश्य ही देगी। हिंसा का पाप उपाश्रय में लगता है और अन्यत्र वह पुण्य बन भाता है वह अपूर्वराल है को में सपा में ही है, सका है यह भी राज्य का एक ही अंश है। धर्म और कर्म का संबंध ईंट और चूने के साथ नहीं है, क्योंकि वह तो वसता है आत्मा की वृत्तियों में।
श्रावक भी शृंगार -प्रसाधनों के पीछे होंगे वाली हिंसाओं से बचे। चमकीले चमडे के बूट सादे बूटों की अपेक्षा अधिक हिंसा से निर्मित है। अतः यदि श्रावक्र सादगी से काम चलावे तो वह महारंभ से बच सकता है। प्रस्तुत गाया का यही हार्द है।
टीका:--सर्वेषां संसारावासे शान्तानां तुष्टानां गृही श्रावको यदि वा गृहिणां श्रावकामां ब्रह्मरतः प्रशंसाप्रियः कर्मोपादानाय भूस्वा तैः प्रत्युक्तः कथमिति कुतोऽर्थे हेतुमिच्छसीति ।
आत्मरत गृहस्थ धावक संसाराषस्था में प्रशंसाप्रिय हो कर भी सभी शान्त संतुष्ट गृही श्रावकों के लिए कर्मोपादान का कारण बनाता है। तो भी ये गृही श्रावक उसे कहते हैं । क्यों मुझे मारना चाहते हो ?। यहां टीका स्पष्ट नहीं है।
जर्मन विद्वान प्रोफेसर शुकिंग इस संबंध में भिन्न मत रखते हैं-जिसे अपनी शक्ति पर गर्व है वह पार्थिव जीवन में सत्य उपदेश ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होता । साथ ही वह झूठे प्रदर्शन से लज्जित भी नहीं होता।
संतस्स करणं णस्थि पासतो करणं भवे ।
बहुधा दिटुं इमं मुटु णासतो भवसंकरो ॥२॥ अर्थ:-विद्यमान घस्तु कभी की नहीं जाती है और असत् वस्तु तो कमी की ही नहीं जाती । अथवा विद्यमान वस्तु का करण (कारण) नहीं है। क्योंकि अपने करण के द्वारा ही कार्य रूप में आई है। असत् वस्तु का कोई करण नहीं होला । बहुधा यह भली भांति देखा गया है कि भवसकिये असत् नहीं है। गुजराती भाषान्तर:
વિદ્યમાન વસ્તુ ક્યારે પણ કરાતી નથી. અને અસત્ વસ્તુ તો ક્યારેય ઉત્પન્ન થતી જ નથી, અથવા વિદ્યમાન વસ્તુનું કરણ (કારણું) નથી, કારણ કે આપણું કરણદ્વારા જ કાર્ય રૂપમાં આવી છે. અને અસત્ વસ્તુનું કોઈ કારણ નથી હોતું. બહુધા આ સારી રીતે જવાયું છે. કે ભવ સાંકર્ય અસત્ નથી.
दर्शन के क्षेत्र में सांख्यदर्शन सत् वादी है जब कि बौद्ध और वैशेषिक वर्शन असत् बादी है । सांख्य दर्शन कहता है कि विश्व में सत् विद्यमान वस्तु ही की जाती है, असत् नहीं। घर मिट्टी के रूप में पहले ही से विद्यमान है। कुंभकार के कुदाल हाथ उसको मूर्त रूप देते हैं। यदि कुम्भकार यह दावा करता हो कि वहीं असत् का भी निर्माता है तो जरा उससे यह कह दीजिए कि आकाश का भी एक घट बना दे। वह कहेगा कि यह असंभव है। इसका मतलब सत् की ही उत्पनि हो सकती है।
बौद्ध और वैशेषिक दर्शन असत् वादी है। उनका विश्वास है कि असन की ही उत्पत्ति होती है। विद्यमान वस्तु का करना क्या है ? साथही एक दूसरा भी प्रश्न है, कि यदि घट मिट्टी में ही उपस्थित है तो दिम्बाद क्यों नहीं देता। यह प्रत्यक्ष
१ इसिभासियं पर प्रो० शुभिा के टिप्पण पृष्ठ ५५८