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भयाली-अहंतर्षि प्रोक
भयाली-णाम
त्रयोदश अध्ययन ऐसा माना जाता है कि एक का विकास दूसरे का विनाश ही ले कर आता है। किंतु यदि मेरा उत्थान से दूसरे का पतन बनता है तो वह मेरे लिए कदापि ग्राह्य नहीं होगा। जिसमें सबका हित है, सबका श्रेय है यही मुझे ग्राह्य होगा। यह सर्वोदय की ऊर्जस्व भाव -धारा आज के पांच सौ वर्ष पूर्व आचार्य समन्तभद्र की वाणी में सुनाई देती है। ___ 'सर्वोदयमिदं शासनं तवैता' । शताब्दियों नहीं सहस्राब्दियों के भी पूर्व भयाली अतिर्षि के मुख से भी यह सर्वोदय की पवित्र वाणी सुनाई देती है।
किमत्थ मस्थि लाचगणं ताप तज्जैण भयालेणा अरहता इसिणा बुइत:णोऽहं खलु भो अपणो विमोयणटुताए परं अभिभविस्सामि
मा गं मा णं से परे अभिभूयमाणे ममं व अहिताए भविस्सति ।। अर्थ:-तुम्हारा लावण्य क्यों नहीं है? इसके उत्तर में मैतार्य मयाली अर्हतर्षि बोले-में अपनी विमक्ति के लिए दूसरे को पराजित नहीं करूंगा । नहीं नहीं; वह पराजित व्यकि मेरे ही लिए अहित-कर्ता बनेगा। गुजराती भाषान्तर:
તમારું લાવણય શા માટે નથી ? તેને ઉત્તરમાં મૈતાર્થ ભયાલી અહર્ષિ બોલ્યા હું પોતાની વિમુક્તિ માટે બીજાને પરાજિત નહીં કરું. ના, ના, તે પરાજિત વ્યક્તિ જ આપણે માટે અહિત-કત બનશે.
विश्वव्यवस्था में एक की विजय दूसरे की पराजय बन कर आती है। एक की मुस्कान दूसरे के लिए आंसू ले कर आती है । व्यक्ति अपने विकास के लिए दूसरे का विनाश करता है। किन्तु भयाली अर्हतर्षि कहते हैं कि मैं अपनी विजय के लिए दूसरे को पराजित नहीं कर सकला। दूसरे की चिता भस्म पर अपने लिए महल नहीं चुन सकता। क्योंकि दूसरे की पराजय में मेरा ही अहित छिपा हुआ है। दूसरे के बहते हुए आंसू मुझे भी चैन से नहीं रहने देगे। अतः दूसरे के हर्ष में मेरा हर्ष है और दूसरे के सुस्त्र में ही मेरा सुख है।
टीका:-किमर्थ स्वया लावण्यं मैत्री (मास्ति)न क्रियते इति बलात् प्रतिबोधितोऽपि संस्तं कषिच्छावकं प्रतिभाषितं नाई खलु भो मारमनो विमोचनार्थाय परमभिभविष्यामि । मा भूत स परोऽभिभूयमानो ममैवाहिताय पापकर्मविणकायेत्युक्तप्रकारेणक्षिपथावकस्याध्यवसायः ।
किसी श्रावक को बलात् प्रतिबोध देते हुए किसी ने पूछा कि तुम सौन्दर्य से मैत्री क्यों नहीं करते हो ! अर्थात्, तुम सौन्दर्यशाली क्यों नहीं बनते? इसके उत्तर में वह बोला कि अपनी मुक्ति के लिए दूसरे को पराजित नहीं करूंगा। क्यो कि वह दूसरा पराजित होता हुआ भी मेरे अहित का निमित्त न बन जाए । अर्थात् पाप कर्म के विपाकरूप में उदय न हो इस प्रकार अक्षिप्त धावक का अध्यवसाय है।
आताणार उ सव्वेसि, गिहिबूहणतारण ।
संसारवाससंतार्ण कई मे हंतुमिच्छसि ॥१॥ अर्थ:-दूसरा अभिभूत होने वाला व्यक्ति संसार में रहे हुए गृहस्थ कहे जानेवाले तारकों-श्रावकों से पूछता है कि तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो । गुजराती भाषान्तर :
હાર પામવાવાળી બીજી વ્યક્તિ સંસારમાં રહેલા ગૃહસ્થ કહેવાતા તારકે- શ્રાવકોને પૂછે છે કે તમે મને શા માટે મારી નાખવા ઈચ્છે છે
श्रावक गृहस्थ है यद्यपि उसकी भी जिम्मेदारियां हैं। इसे उन्हें निभाते हुए उसे चलना है। अतः वह हिंसा नहीं करता है। अपितु उसे हिंसा करना पड़ता है। फिर भी उसकी मर्यादा है। जीवन - यापन के लिए आवश्यक रूप में अनिवार्य हिंसा के लिए ही बह मुक्त है, किन्तु बनाबट और सजावट के लिए होने वाली हिंसा के लिए वह मुक्त नहीं है। साथ ही