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द्वादश अध्ययन
टीका:-पंच वनीपका अतिथि-कृपण-कार-श्रवणाः तैः शव दोषवारितां मिक्षा य एषण्यैषते तस्य हननदोषषिप्रमुक्तस्य लामः सुलब्धो भवति । गतार्थः।
पंथाणं स्वसंबद्धं फलावत्तिं च चिंतय ।
कोहातीणं विधाकं च अप्पणो य परस्स य ॥३॥ अर्थ:-मुनि रूपसंबद्ध पंथ और फलावृत्ति का विचार करे । ख और पर के क्रोधादि के विपाक का भी चिन्तन करे । अर्थात् भिक्षा के लिए जाते समय जिन शासन और मुनिरूप को हमेशा सामने रखे । उसी के अनुरूप फल की आवृत्ति चाहे । साथ ही बह ख और पर किसी के लिए भी क्रोध का निमित्त न बने। गुजराती भाषान्तर:
| મુનિ રૂપ-સંબદ્ધ પંથ અને ફળપ્રાણીનો વિચાર કરે. સ્વ અને પરનું ક્રોધાદિના વિપાકનું પણ ચિંતન કરે. અથત ભિક્ષા માટે જતી વખતે જૈનશાસન અને મુનિરૂપને હંમેશા સામે રાખે. તેને અનુરૂપ ફળની આવૃત્તિ ચાહે. સાથે સાથે તે સ્વ અને પર કોઈને માટે પણ ક્રોધનું નિમિત્ત ન બને.
पूर्वगाथा में बताया गया है कि भिक्षार्थी मुनी पंच बनोपकों से शुद्ध भिक्षा प्रहण करे। उसका हेतु यहां पर दिया गया है । मुनि भिक्षा लेते समय अपने मुनिरूप और शासन के प्रतिष्ठा की सुरक्षा करे। क्षुधा से आक्रान्त मन में दीनता को प्रवेश न करने दे। दीनता दिखा कर भिक्षा लेना मुनि रूपा और शासन की प्रतिष्ठा को समाप्त करना है। साथ ही यदि पंच वनीपक याचक जहाँ सडे हैं, वहां प्रवेश करने पर संभव है कि अपने लाभ के प्रति विघ्न कारक जान कर वे मुनि के ऊपर कोधित हो जाय और वे संघर्ष तक के लिए भी तत्पर हो जाएं। परिणामतः मुनि के मन में भी क्रोध आ सकता है। अतः समभाव का उपासक मुनि स्व और पर को कषाय के निमेसों से दूर रखे।
टीका:-पर्थ मार्गान्तं रूपसंबड्मनुरूप फलापति च चिन्तयेत कामक्रोध-मान-माया-लोभांतं पिंढेषणायामनुभूतानां चारमानं परं चाधिकृत्य विपाकम् ।
जाण्णवकीय णाम अज्झयणं साधक जिन शासन के अनुरूप फलप्राप्ति का चिन्तन करे तथा पिंडषणा आहार की मवेषणा के समय अनुभूति में आए हुए कोष मान माया लोभ आदि के विपाक का चिन्तन करे, क्योंकि कषाय के अशुभ विपाक का चिंतन उसे कषाय से मुक्त करेगा।
इति याज्ञवल्कीयाध्ययनं द्वादशं समाप्तम्
१ वणीमगरस वा तस्स हायगस्नुभयरस वा। अपत्तिय सिया बोज्जा लहत्तं पश्यणरस वा ।।
-दशवै. अ०५ दि. उ, गा. ११