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________________ JIONAL हलि-भालिपाई lada टिप्पण होने के कारण अग्राह्य है। ग्यारहवें अध्ययन में 'आणच पद आया है संभव । है उसी की अनुश्रुति में यहां मी आणच पद दे दिया गया हो। शेष अर्थ ऊपरवत् है। __ तं जहा-जहा कधोता य कविजला य गाओ चरंति इह पातरासं । एवं मुनी गोयरियप्पनिटे णो आलथे पो वि य संजलेजा ॥१॥ अर्थ:-जैसे कपोत कबूतर कपिंजल पक्षीविशेष और गौ प्रातः भोजन के लिए वन में घूमते है इसी प्रकार गौचरी में प्रविष्ट मुनि गौवत् भिक्षा करे, परंतु स्वादिष्ट पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसी गृहस्थ की प्रशंसा न करे। और भिक्षा न मिलने एर वह कुपित मी न होए। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે કપોત-બતર, કપિલ-પક્ષીવિશેષ અને ગાય પ્રાતઃકાળનું ભોજન પ્રાપ્ત કરવા માટે વનમાં ફરે છે, તેવી જ રીતે નેચરી માટે ગયેલા મુનિએ ગાયની માફક ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી જોઈએ. પરંતુ સ્વાદિષ્ટ પદા ની પ્રાપ્તિ માટે તેણે બીજાની પ્રશંસા પણ નહિ કરવી જોઈએ અને ભિક્ષા ન મળે તો તેણે ક્રોધાયમાન પણ થવું नो . पहले कहा गया है कि साधक लोकैषणा और वित्तषणा का त्याग करे; वह गोपथ से जाए, महापथ से नहीं। उसी गोपथ पर चलता हुआ मुनि भिक्षा के लिए जाता है। किन्तु उसका मन अनाकुल होना चाहिए। कपोत कपिंजल और गौ जब अपना अपना भोजन ढूंढने निकलते है तब उनके मन में न तो कोई आकुलता रहती है किसी प्रकार की दौर-धूप शान्त गति से अपने अपने भोजन का शोध करते हैं । मुनि भी भिक्षा के समय समचित्त रहे। स्वादिष्ट पदार्थों का आकर्षण उसके मन को भटकाए नहीं । रास्ते में सेठ का भवन आया, उसमें भी वह जाता है, वहाँ से स्वादिष्ट आहार प्राप्त हुआ तो झोली में डाल कर आगे बढे और एक गरीब का घर आये तो वहां भी प्रवेश करे और उसकी रूखी रोटी भी उसी मेह के साथ स्वीकार करे। पर यदि कभी झोली खाली मी रह गई तो भी मन की झोली को न खाली होने दे; मन की झोली तो प्रेम और श्रद्धा से भरी रहे। टीका:-मावः प्रातराशं चरन्ति, इ इति स्थाने इवेति युक्ततरमिव श्यते । एवं मुनिर्गोचयाँ प्रविष्टः स्याला सति नाल्पेन न मुदा लेपेन नापि चालाम क्रोधेन संज्वलेत् । गौ प्रातः अशन के लिए चरती है। इसी प्रकार मुनि गोचरी के लिए जाता है। अभीप्सित वस्तु मिल जाने पर उसके मुख पर अल्प 'मी मुस्कान की रेखा न खींचे और वस्तु नहीं मिलने पर वह क्रोध से जले भी नहीं । गाथा में इह पद आया है उसके स्थान पर इव पद उपयुक्त लगता है। पंचधणीमकसुद्धं जो भिक्खं एसणाए. एसेजा। तस्स मुलद्धा लाभा हण्णाय विष्पमुकदोसस्स ॥२॥ अर्थ:-दोषों (कर्मों) के हनन के लिए विशेषतः मुक्त आत्मा मुनि पंच बनीपक-याचक्र-अतिथि कृपण दीन कुत्ता भ्रमणों से शुद्ध अर्थात् उनके लिए विघ्न न बनता हुआ निर्दोष भिक्षा को गवेषणा पूर्वक ग्रहण करे। गुजराती भाषान्तर: દોષ, કમીને નાશ કરવા માટે વિપ્રમુક્ત આત્મા મુને પંચવનીપક, પાચક, અતિથિ કૃપણ, ગરીબ, બ્રાહ્મણ, દુબળા, કૂતરી, શ્રમયુર્થી શબ્દક અર્થાતું તેને માટે વિશ્વ ન બનતે નિદૉષ આહાર ગષ વક ગ્રહણ કરે. पूर्व गाथा में साधक के लिए अनाकुल मन से मिक्षाचरी का निर्देश किया गया था। यहां मिक्षा शुद्धि के संबंध में निर्देश है । मुनि मिक्षा के लिए किसी घर में प्रवेश करता है यदि उसके सामने अतिथि कृपय दीन दुखेल कुत्ता ब्राह्मण और अन्य तैर्थिक श्रमण जो कि बनीपक कहलाते हैं। उपस्थित हों तो मुनि लौट आए। अन्यथा भविक गृहस्थ मुनि को भिक्षा देते हुए अन्य को नहीं देगा । और इस प्रकार अन्य याचक निराश लौट जाएंगे। "मिति मे सब्बभूयेसु" का उदाता यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि उसकी झोली भर जाए और दूसरे खाली हाथ लौटे। १ समण माहणं वा वि किवणं वा वणीमग । तमतिकाम न पनिसे न चिडे चक्षुफासयो। पहिसेहिते व दिपणे वा ततो तस्मि णयत्तिते । उपसंकमे भत्त पाणढ़ाप.व संजते ।। -दशकालिक अ.५ उ, २ गाथा १०१-१२
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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