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द्वादश अध्ययन
यानवल्क्यअर्हतप्रिोक्तं
लोकेपणानाम द्वादशाध्ययनम् । मन को कृतियाँ आत्मा को चंचल बनाती है। मानव का मन वृत्तियों के द्वारा ही गतिशील होता है। वृत्तियों कभी शुभ होती हैं कभी अशुभ । वृत्ति ही व्यक्ति का निर्माण करती है। यान्त्र मन को शु. की सार तिरपे वाली दो वत्तियां है-पक लोकेषणा और दूसरी वित्तषणा । मैं कुछ हूं, जनता मुझे कुछ समझे, यह लोकेषणा है। अपनी अहंयुक्ति के पोषण के लिए मानव साधन के रूप में वित्त को अपनाता है। इन्हीं वृत्तियों का विश्लेषण प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है।
आणचा जाच ताव लोएसणा, ताच ताव वित्तेसणा, जाव ताव विसणा ताव ताव लोपसपा, से लोएसणं च वित्तेसणं च परिणाय गो-पहेणं गच्छेज्जा, णो महापहेणं गच्छेजा। जग्णवक्केण अरहता इसिणा वुइतं ।
अर्थ:-साधक को यह जानना चाहिए कि जब तक लोकेषणा है तब तक चित्तैषणा है । जब तक विशेषणा है तब तक लोकेषणा है। साधक लोकैषणा और वित्तषणा का परित्याग कर मो-पथ से जाय, महापथ से न जाय । ऐसा याज्ञवल्क्य अईतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर:
સાધકે સમજવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી લોકવણા છે ત્યાં સુધી વિનૈષણા છે. જ્યાં સુધી વિષણા છે ત્યાં સુધી લોકેષણ છે. સાધકે લોકેષણા અને વિરૈષણાનો ત્યાગ કરી પથથી જવું જોઈએ અને મહાપથથી ન જવું જોઈએ એમ યાજ્ઞવય અતિષિ બોલ્યા.
मानष मन को दो तरह की भूख है-संपत्ति और प्रसिद्धि । जव तक प्रसिद्धि की कामना है तब तक उसके लिए संपति की आवश्यकता रहेगी 1 क्योंकि संपत्ति से प्रसिद्धि खरीदी जा सकती है । कुछ व्यक्ति संपत्ति खर्च करके कीर्ति खरीदते हैं। और एक बार प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद उसका उपयोग संपति के अर्जन में करते हैं । अतः लोकेषणा और वितषणा दोनों सगी बहनें हैं। एक के सद्भाव में दूसरी आ ही जाती है।
साधक लोकेषणा और वित्तषणा के मर्म को एए । उसके अन्तरंग में प्रवेश करने पर उसे असली तथ्य हाथ लग जाएगा। और वह दोनों का परिझान करके उनका परित्याग करे ।
एक महत्त्वपूर्ण बात और कही गई है। साधक गोपथ ले जाए, किन्तु महापच से नहीं।
जीवन जग के दो पथ है। पहला है अधिक से अधिक अर्जन करे और अधिक से अधिक खर्च करे। चिलास और वैभत्र के प्रसाधन अधिक रूप में एकत्रित किए जाय, अपनी आवश्यकताएँ अधिक बढाए और उनकी पूर्ति के लिए अधिक सम्पत्ति जुटाए । दूसरा पथ है सीमित आवश्यकता और सीमित साधन । जैन-संस्कृति पहले सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती, क्यों कि जितनी ही आवश्यकताएं बलाएंगे उसके लिए उतने ही संघर्ष बढ़ेंगे । क्योंकि इस्लाएँ असीमित हैं जब कि साधन सीमित हैं। जीवन है तो उसकी आवश्यकताएं भी रहेगी 1 किन्तु वे अनियश्रित न हों । जैनसाधक गोपथ से जाएगा, महापथ से नहीं। उसकी आवश्यकता यदि एक ही धन से पूर्ण हो जाती है तो वह दूसरे वस्त्र के लिए प्रयन नहीं करेगा और प्रयत्न का अभाव हुआ तो याचना और उसके अभाव के स्वेद में गी बचेगा।
यही सिद्धान्त गृहस्थ के लिए भी है। यदि एक ही मकान से उसका काम चल जाता है तो वह दो मकानों के लिए लोभ में न गिरे। यदि स्वल्य हिंसा से ही उसका काम चल जाता है तो वह हिंसा के क्षेत्र का विस्तार नहीं करे । दया और करुणा के क्षेत्र में श्रावक महापथ से जाएगा किन्तु आरंभ और हिंसा के क्षेत्र में गोपथ से ही जाएगा।
टीका:यावद् यावलोकषणा लोकसंबधस्तावत् तावद् विरोषणा लोक इति तद्विपरीतश्वालापको द्रष्टव्यः । आणच ति आशाएति हितासंबद्धस्वात् पूर्वगताध्ययनस्य टिप्पणत्वाचानारत । स मुनिलोकेषण व वित्तषणं च परिज्ञाय स्यत्वा गोपथा गच्छेका महापया राजमार्गेण सग्रथा कार्य तदुप्यते।।
जहां जहां लोकैषणा लोकसंबंध है वहो वहाँ निलेषणा लोभ है । इसीप्रकार यहा विपरीत आलापक भी जानना चाहिए । आणध का अर्थ आज्ञाय आज्ञा के लिए होता है। किन्तु यहां वह असंबद्ध है। साथ ही पूर्व गत अध्ययन का