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इसि-भालियाई
टीकाकार कुछ भिन मन रखते हैं। शिष्ट कर्म विद्याएँ शास्त्र निर्दिष्ट कर्म किया से युक्त कोविद व्यक्ति मोचनीय रोग से रोगी को मुक करता है । परेतु टीकाकार द्वारा निर्दिष्ट अर्थ उचित नहीं लगता।
संजोए जो विहाणं तु व्याणं गुणलाघवे ।।
सो उ संजोग-णिप्फण्णं सध्वं कुणह कारियं ॥३॥ अर्थ:-जो द्रव्यों के गुण और लाघव के विधान का संयोग करता है वह संयोग-निष्पन्नता सभी कार्यों को पूर्ण करती है। गुजराती भाषान्तर:
જે દ્રવ્યોના ગુણ અને લાઘવને વિદ્યાનો સંચોગ કરે છે તે સંયોગ પ્રાપ્તિ બધાજ કાને પૂર્ણ કરે છે.
कार्य संपन्न करने के लिए साधक को पहले द्रक्ष्यों के गुण का ज्ञान अवश्यक है। उसके विधान नियमों में जो कुशल है उसके विधि विधानों की जो कुशलता पूर्वक संयोजना करता है वही कार्य में सफल होता है।
टीका:-यस्तु दुष्याणां गुणलाधये विधानं योजयति तृणमिय तानि गणयति स सत्यं संयोगनिष्पन्न कार्य करोति ।
जो द्रव्यों के गुण लाधन में विधान की योजना करता है अर्थात् व्यों के गुण लाघव में विधानानुकूल कार्य करता है, ट्रव्यों को तृणवत गिनता है वद्द सत्यतः संयोग निष्पन्न कार्य करता है।
विजोपयारविग्णाता, जो धीमं सत्तसंजुतो।
सोपिसाहस मनं पुगत साय ॥ अर्थ :-प्रशाशील साधक विद्या और उपचार का विज्ञाता है और शकिसपन है तो वह विद्या की साधना कर के तुरन्त ही अपना कार्य करता है। गुजराती भाषान्तर:
જે પ્રજ્ઞાશીલ (સમજુ) સાધક વિદ્યા અને ઉપચારને જાણકાર હોય અને શક્તિવાન હોય તો તે વિદ્યાની સાધના કરીને વિલંબ વગર પોતાનું કાર્ય કરી શકે છે,
सिद्धि के लिए दो बातें अपेक्षित है। साध्य और उसकी साधना का परिज्ञान और उसके लिए अपेक्षित आत्म-जल का सद्भाव । इसके अभाव में साधना अधूरी रहेगी। वह सिद्धि के शीर्ष को हुन सकेगी।
टीका:-विद्योपचारविज्ञाता विद्योपचारे कोविदो यो श्रीमान् सत्वसंयुतो भवति स विद्या साधयित्वा तरक्षण कार्य करोति ।
यहां विद्या की साधना का रहस्य बतलाया गया है। उसकी सिद्धि के लिए उसके उपचार सत्व की आवश्यकता रहती है। किन्तु यहाँ विद्या का अर्थ केवल भौतिक मंत्र-तंत्रादि की यात्रना न ले कर आत्म - विद्या ही अभिप्रेत है। और वह है ज्ञान-साधना । ज्ञान के लिए 'विद्या' शब्द आता है।
णिवत्तिं मोक्खमग्गस्स, सम्मं जो तु विजाणति ।
राग दोषे णिराकिन्या से उ सिद्धि गमिस्सति ॥ ५॥ अर्थ:-जो मोक्ष-मार्ग की स्वरूप रचना सम्यक् प्रकार से जानता है, वह आत्मा राग-द्वेष को समाप्त कर सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर :
જે મોક્ષમાર્ગના સ્વરૂપની રચના સારી રીતે જાણે છે તે આત્મા રાગ અને દ્વેષને નાશ કરી સિદ્ધ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરે છે.
आत्म-विमुक्ति के लिए सर्व प्रथम मोक्ष का खरूप ज्ञान आवश्यक है। उसके अभाव में मोक्ष के दिवानों ने अपने शरीर को भी कटवा लिए हैं। परन्तु इतने कष्टों के बावजूद भी आत्मा मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकी, क्योंकि उसमें सम्यग् दर्शन का अभाव है। जब तक राग और देष की आग नहीं बुझ जाती तब तक मोक्ष की मंजिल दूर रहेगी। फिर चाहे कितना भी देह-दंड क्यों न किया जाए।
एवं से बुद्धे । गतार्थ ।
मंखलीपुसनाम अज्झयणं इति मखलीपुत्र-अतिर्षिप्रोक्तं एकादशं अध्ययनं समाप्तम् । १"विजाचरणपारगे'-उत्तरा० अ० २३.६