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पकादश अध्ययन
यह उत्सर्ग मार्ग है। साधक परिसहों के साथ संघर्ष करता हुआ भी राम भाव को कायम रख सकता है। तब तक उत्सर्म-मार्ग पर ही चलता रहे। किन्तु यदि उत्सर्य में मन की समाधि भंग होते देखे तो वह अपवाद का अवलंब भी ले सकता है। इसीलिए त्रिकरण त्रियोग से हिंसा के लागी मुनि को भी अपवाद मार्ग में पहाडी आदि विकट मार्ग से गुजरने पर हुए पैर के फिसल जाने पर वृक्ष लता आदि का अवलंबन ले कर उतरने की अनुज्ञा दी है।
इसीलिए साधक वृक्षादि को स्पर्श करके भी अनाचार का भागी नहीं होता। अपवाद अनाचार नहीं है। दोनों में उतना ही अंतर है जितना उतरने और गिरने में। सीटी द्वारा उतर कर भी उसी भूमि पर आते हैं और गिर कर भी वहीं आते है। किन्तु उतरने में मही सलामत रहते हैं जव कि गिरने में हड्डी-पसली चूर्ण हो जाता है। अतः अपवाद उतरना है, और अनाचार गिरना है।
यहाँ उत्सर्ग मार्ग का विधान है:
टीका:-ग्रायी तु कीश इत्युच्यते यः पुरुषः एजति चेदांत क्षुभ्यति घति स्पन्दति चलति उदारयति संवं भावं परिणमति न स प्रायी। य स न एजति पावत् परिणमति स पायी । नामिप्या च खलु नास्त्येजनं घेदनं शोभनं घन स्पन्दन चलन उदीरणं तं तं भावं परिणामः। प्रायी स्वात्मानं च परं च चतुरान्तात् संसारकांतारात् प्रातीति । टीकार्य उपरवत् है।
असमूहो उ जो णेता मग्गदोसपरकमो।
गमणि गतिं पाई जणं पावेति गामिणं ॥१॥ अर्थ:-मार्गदर्शक पुरुषार्थी कुशल नेता लक्ष्य और गति का परिज्ञान कर के मनुष्य अपने ग्राम में रहे हुए लोगों को मिल सकता है। गुजराती भाषान्तर:આ માર્ગ દેખાડનાર પુરૂષાર્થ કુશળ નેતા લક્ષ્ય અને ગતિનું પરિણામ ન હોય તે જ) કરીને મનુષ્ય પોતાના ગામમાં જઈ ધારેલા મનુષ્યને મળી શકે છે.
___ लक्ष्य पर पहुंचने के लिए कुशल नेना का सहयोग आवश्यक होता है । यदि नेता कुशल है तो भयानक वन में भी पगडी खोज लेता है। पुरुषार्थ वादी नेता लक्ष्य और गति का सेतुलन रखता है। लक्ष्य को दूरी के अनुपात में यदि मति में तेजी हो तभी नेता राही को ग्राम तक पहुंचा सकता है।
अपरिचित वन प्रदेश में यदि हमें गुजरना है तो उसके लिए एक कुशल नेता आवश्यक है। साधना के क्षेत्र में प्रगति करने के लिए गी एक कुशल नेता की आवश्यकता है। किन्नु वह असमूट हो, पथ की बाधाओं को देख कर भयभीत न हो। साथ ही जिल पथ से गुजरना है उसके मोडों में भी यह परिचित हो । साथ ही बद्द एक दृष्टि अपने साथी की गति पर भी रखे और एक दृष्टि उसकी लक्ष्य पर रहे। दोनों का संतुलन रहने पर ही लक्ष्य पर पहुंच सकता है।
टीका:-असम्मूढस्तु यो नेता मार्गदोषात् कुमार्गदोष घर्जयेत् पराकमो यस्य स तथा । सन्मार्गेण व्रजन् हि मरामनीयां गतिं ज्ञास्वा तां प्राप्यति । टीकार्थ ऊपरवत है।
सिद्धकम्मो तु जो बेजो सत्थकम्मे य कोविओ। .
मोयणिजातो सो वीरो रोगा मोतेति रोगिणं ॥२॥ अर्थ:-शस्त्र ( शल्य ) कर्म में कुशल सिद्धहस्त बीर वैद्य मोचनीय ( साध्य) रोग से रोगी को मुरू करता है। सिद्धहस्त वैद्य के हाथ में रोगी अपने आप को रोग मुक्त मानता है। अध्यात्म के कुशल चिकित्सक के पास पहुंचने पर साधक अनादि वासनाओं की न्याधियों से विमुक्त हो जाता है। गुजराती भाषान्तर:---
શશ્નકર્મમાં કુશળ સિદ્ધહસ્ત વિદ્ય સાધ્ય રોગથી રોગીને મુક્ત કરે છે. કેમકે સિદ્ધહસ્ત (અનુભવી) વિના હાથમાં રોગી સ્વયે પિતાને રોગમુક્ત માને છે. અધ્યામના કુશળ ચિકિત્સકની પાસે પહોંચતાં જ સાધક અનાદિ વાસનાઓની વ્યાધિઓથી વિમુક્ત થઈ જાય છે.
दीका:-शिष्टकर्मणि तु यो विद्याः शस्त्रकर्मणि कोधिदः । वीरोह सन् सेगिण मोचयति मोचनीयात् रोगात् ।
१ से तत्थ पयलमाणे रुक्खाणि वा गुच्छाणि पा गुम्माशिना लयाओ ना व वल्लिा का तणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय अवलंबिय उतरेजा - आचारांग ।