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इसि-भासियाई साम्प्रदायिकता के स्थिर स्वार्थियों ने गीता के एक श्लोकाध की गलत व्याख्या देकर समाज में साम्प्रदायिकता फैलाई है। वह है: "स्वधर्मे निधन धेयः परधर्मों भयावहः ।" यहां ख का मतलब अमुक संप्रदाय में अंधे रहना नहीं है। ख धर्म का अर्थ आत्म-धर्म है और पर धर्म का अर्थ देव-धर्म है। साधक के लिए स्वधर्म आत्म धर्म में ही रहना श्रेयस्कर है। वेद धर्म में जाना उसके लिए भयावह होगा । इसी प्रकार व समय और पर समय का आत्म धर्म पर समय से मतलब अनात्म-देह धर्म ही लिया गया है।
आत्मा को समझे बिना देह की ओर झुकने वाला साधक तथ्यतः देहाभ्यास में पड़ कर पतन की राह लेगा । अतः साधक पहले आत्मसिद्धान्त को समझ, फिर जड वाद को समशे। कोरा जी बाद केली भयानक विगीषिका ले आता है, पीसवीं सदी में जीने वाल| उससे अपरिचित नहीं है। दो दो महा युद्ध जड बाद की ही देन है। साथ ही जड वाद को समझना भी आवश्यक है, क्योंकि जड़ के बिना अकेले चैतन्य का ज्ञान ही नहीं हो सकता। किन्तु पद्दले आत्म बाद को पूरी तरह समझ लें, आत्म-परिणति में स्थित हो जाएँ. फिर जड को देने । ज्ञान की पूर्णता पर पहुंचने और चरित्र में स्थित होनेके लिए स्व और पर दोनों सिद्धान्त का ज्ञान होना आवश्यक है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं:
चरणकरणप्पहाणा ससमयपरसमयमुक्कावारा।
चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं गाणंति॥ जो केवल चरण करण आचार के नियमोपनियम में रह कर ससमय और पर समय के ज्ञान से पृथक् रहने बाला साधक यथार्थतः चरण करण के सार को भी शुद्ध रूप में पहबानता नहीं है।
टीकार--अज्ञाय लौकिकं ज्ञानमधिगम्य शिष्ट जन इवेत्ति वा स्वेति वा भवत्यमुनिः परंवज्ञावा लौकिक ज्ञानमनाधित्याध्यात्मिक संख्येयावधायैव स एव मुनिस्वायी भवति । टीकार्य ऊपरवत् है।
प्रस्तुत मंस्खलीपुत्र जैन आगम में प्रसिद्ध आजीवक मत संस्थापक मखलीपुत्र गौशालक से भिन्न है। गौशाला भ. महावीर का सम कालीन था जब कि ये मंखलीपुत्रम नेमिनाथ के युग के हैं। इसका आधार उपसंहार की निम्र गाथा है
पत्येयबुद्ध मसिणो वीसं तित्थे अरिनेमिस्स ।
पासस्स य पपणस वीरस्स विलीण मोहस्स ॥ से एजति बेदति खुब्मति घट्टति फेदति चलति उदीरेति तं तं भवं परिणमति ण से ताती से जो पजति णो वेदति णो खुमति णो घट्टति, णो फंदति, णो चलति, णो उदीरेति णोतं तं भावं परिणमति से ताती तातिर्ण व खलु णस्थि सजणा, वेदणा, खुम्भणा, घट्टणा, फेवणा, चलणा, उदीरणा, तं तं भावं परिणामे । ताती खल अप्पाणं च परं च चाउरताओ संसारकंताराओ ताति ताई।
अर्थ:-जो मुनि परित्रहों को देख कर कंपित होता है, उसमें दुःख का चे चेदन करता है, संचित न्यादि से संघहन करता है, स्पंदित करता है, कषायजन्य तभात्रों में परिणत होता है, वह प्रायी-रक्षक नहीं है । परंतु जिस साधक को परिषह सामने आने पर न कंपकंपी छूटती है, न जो दुःस का बेदन करता है, जिसे क्षोभ, संघटन, स्पंदन, चलन, उदीरण भी नहीं है और तत् तद् भावों में जो परिणत भी नहीं होता है वही त्रायी-रक्षक मुनि है। क्योंकि त्रायी रक्षक मुनि में ये एजन वेदन आदि कोई भी भाव नहीं होते हैं। ऐसा त्रायी मुनि ही अपने आप को तथा अन्य आत्माओं को चतुरान्त चार दिशा ही जिसका अन्त है ऐसे संसार रूप वन से रक्षण करता है। गुजराती भाषान्तर:
જે મુનિ પરિષહને જોઈને પુજે છે, તેમાં દુઃખનું તે વેદન કરે છે, સંચિત કન્યાદિથી સંઘટન કરે છે, તેને સ્પંદિત કરે છે, કષાય જન્ય તહ તદ્દ ભાવોમાં પરિણત થાય છે તે ત્રાથી રક્ષક નથી. પરંતુ જે સાધકને પરિવહ સામે આવતાં બીક લાગતી નથી, ને દુ:ખ પાણ પામતા નથી, જેને ક્ષોભ, ઘટન, સ્પંદન, ચલન, ઉદીરણ પણું નથી અને પછી દુભાવોમાં પરિણુત પણ જે નથી થતાં તે જ ત્રાથી એટલે રક્ષક મુનિ છે. કારણકે ત્રાવી રાક મુનિમાં આ એજન વેદન આદિ કોઈ પણ ભાવ હોતા નથી. એવા ત્રાથી મુનિ જ સ્વયં પોતાને તથા અન્ય આત્માઓને ચતુરાન્ત-ચાર દિશા જ જેનો અંત છે. એવા સંસારરૂપ વનથી રક્ષણ કરે છે,
साधना का पथ फूलों का नहीं कांटों का है। कदम कदम पर कष्टों का सामना करना पड़ता है । ऋट के शूलों को देख कर जिसकी आत्मा कांप उठती है उसका हृदय दुःख का वेदन कहने लगा और वह कष्ट से बचने के लिए इधर उधर मार्ग खोजता है तो वह संयम मार्म से भटक जाता है। सही अर्थों में वह अपनी आत्म-परिणति और पर का रक्षक नहीं हो सकता है।