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________________ एकादश अध्ययन ६३ प्रस्तुत पाठ में छूटे हुए कुछ विशेष पाठ ज्ञातासूत्र से लिए गए हैं। ज्ञातासूत्र में निम्न पाठ विशेष हैं । "आउरस्स मेसज्ज अभिजनस्स पचमकरण अद्धाणपरिसंतस्स वाहणकिर्च तिरिउकामरस पवहणकिश्वं परे अभियोजितुकामस्स सहायकिश्च ।" रोगमुक्ति के लिए आतुर व्यक्ति का औषध लेना, अभियुक्त व्यचि जिस पर अभियोग लगाया गया है ऐसे व्यक्ति को दोष रहित हो, दूसरे का विश्वास संपादन करना भी आवश्यक है। दूसरे पर स्वयं विजय पाने के लिए किसी शतिसंपन्न व्यक्ति की राहाय लेना भी आवश्यक है। प्रोफेसर शुकिंग भी लिखते हैं कि 'अभिवत्तस्स बहनकिच्छ पाठ अपूर्ण है। "सवहन किच्च" पाठ का "स" निश्चित देश गमन के अर्थ में संबन्धित है। इसके पहले के प्रकरण से ऐसा ज्ञात होता है कि तेतलिपुत्र के हृदय पर गहरी बोट लगी थी। पोट्टिला व्यंग्य भरे शब्दों में प्रश्न करती है साथ ही वह भीयस्स पवजा के साथ उसे संयम मार्ग में प्रेरित करती कि "तुम्हारे मुँह से ही तुमने संयम स्वीकार किया है। इससे प्रेरित हो कर तेतलिपुत्र जातिस्मरण ज्ञान पा कर दीक्षित होते है और केवल ज्ञान भी पाते हैं। विशेष विवरण ज्ञातासूत्र से जान सकते हैं। यह स्वतंत्र प्रकरण है, कहीं सीमित तो कहीं विस्तृत है। ज्ञातासूत्र की कहानियाँ अन्य बातों में मौलिकता रखती हैं। किन्तु पोहिला का देवी रूप में वर्णन ही छोड देते हैं। जब कि इतिभासियाइ सूत्र में "तलिक्खपडिवने" कह कर उसका देवी रूप प्रतिपादित किया है। ऋषिभाषित रात्रकार बोलते हैं-तेतलिपुत्र पोहिला को महत्व पूर्ण संदेश देते हैं। भयभीत व्यक्ति प्रत्रज्या ले सकता है। किन्तु उसका कार्य उतना ही सामान्य है जितना कि एक पिपासित का पानी पीना और बुभुक्षित का भोजन करना। जिसकी अन्तरात्मा में क्षना, दया और करुणा पा सागर लहरा रहा है वह ऐसा नहीं कर सकता है । जहाँ भय है वहाँ कातरता और क्या कायर भी कमी साधना के पथ पर चल सकता है? संग्रम के लिए अन्तर्मन में वैराग्य की धारा पाहिए। और भय कमी भी साधना के पथ प्रशस्त नहीं बना सकता । संगार के नन्हें नन्हें शूलों को देख कर ही जो सहम गया वह अपमान और विकार के पद को सेना मेण! | नादपि कठोर मार्ग पर कैसे कदम बढा सकता है। एस "मग्गो ति वीरस्स" वह कायरों का नहीं है। वीरों का मागे है। एवं से बुद्धे० गतार्थः ।। तेतलिपुत्तीयं नाम अज्झयर्ण तेतलिपुत्राख्यं दशमं अध्ययन समाप्तम् एकादश अध्ययन मंखलीपुत्र-अर्हतर्षिमोकं एकादशमध्ययनम् सिट्ठायणे व्व आणचा अमुणी संखाए अणचा पसे तातिते । मंखलीपुत्तेण अरहता इसिणा वुइयं । अर्थ:-वीतराग की आज्ञा प्राप्त करने के लिए लौकिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला शिष्ट जन अमुनि हो जाता है। किन्तु लौकिक ज्ञान का आध्ययन छोड़ कर अध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला मुनि त्रायी-रक्षक होता है। गुजराती भाषान्तर:( વીતરાગની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવા માટે લૌકિક જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવાવાળે શિષ્ટ મનુષ્ય અમુનિ થઈ જાય છે. પરંતુ લૌકિક જ્ઞાનનું અધ્યયન છોડીને આધ્યાત્મિક જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવાવાળો મુનિ ત્રયી એટલે રક્ષક થાય છે. मुनि अध्यात्म का शोधक है। वह वीतराग धर्म का पधिक है। आध्यात्मिक शान्ति के लिए लौकिक शात्रों-'मिथ्या सूत्रों का अध्ययन करना व्यर्थ है । जब तक ख का अध्ययन नहीं है तब तक पर का अध्ययन किस काम आएगा। आगम में आता है कि मुनि ख समय और पर समय का ज्ञाता बने । ख और पर की व्याख्या साम्प्रदायिक घेरे में बंधे रहने मात्र से नहीं है। हम ऐसी व्याख्या करके स्त्र और पर के साथ उचित न्याय नहीं कर सकेंगे। अपितु साम्प्रदायिक खाइयों को अधिक चौडी करेंगे।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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