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इसि-भासियाई
गुजराती भाषान्तर:
જે મોહથી મોહિત બનેલા આત્મા ભાવથી કામની પ્રાર્થના કરે છે. તે આ દુર્ગમ ભયાવહ સંસારમાં અવશ્ય g:मना सोभने छे.
जो व्यक्ति बाहर से निष्काम है किन्तु जिसके मन में वासना का ताण्डव नृत्य हो रहा है । संसार की सबसे बरी दुःखी आत्माएँ वे ही हैं।
कामसल्लमणुद्धित्ता, जंतयो काममुच्छिया ।
जरा-मरपा-कतारे, परियत्सत्यवक्रम ॥६॥ अर्थ:- काम में आसक्त आत्माएँ जब तक काम के शल्य को चित्त से उखाड नहीं फेकती हैं तब वे जरा और मृत्यु के बन में वक्रता के साथ परिभ्रमण करती रहती हैं। गुजराती भाषान्तर:
કામમાં આસક્ત આત્માઓ જ્યાં સુધી કામના શલ્ય ચિત્તથી ઉખેડીને ફેકતાં નથી, ત્યાં સુધી જરા અને મૃત્યુના વનમાં વક્રતાની સાથે પરિભ્રમણું કરતા રહે છે.
जब तक वासना की रस्सी तोड़ी नहीं है तब तक भव परम्परा मी समाप्त नहीं हो सकती । आससि संसार की यह लता है जिस पर जरा और मरय के विषफल लगा करते हैं।
सदेवमाणुसा कामा, मय पत्ता सहस्ससो।
न याहं कामभोगेसु, तित्तपुब्यो कयाइ चि ॥ ७ ॥ अर्थ:-देव और मानव के ये भोग भने हजार हजार वार प्राप्त किए हैं। अतः इन पहले छोडे हुए काम भोगों से मैं फिर से आसक्त न होगा। गुजराती भाषान्तर:
દેવ અને માનવના આ લોગો હજાર હજાર વખત ભગ્યા છે. માટે આના પહલે જે કામ ભોગે મેં છોડી દીધા છે તેમાં હું ફરીથી આસો નહીં બનું.
बासना की आधी साधक के ज्ञान दीप को बुझाने लगे तब वह सोचे आत्मा शाश्वत है और मैंने अनन्त काल की इस सुदीर्घ यात्रा में अनेक बार गानय के और देव के स्टेशन किये हैं। वहां हजारों बार इन (भोगी) को चाहा, देखा और लिया भी। किन्तु क्या इससे शाश्वत शान्ति पा सका हूं? क्षणिक सुखों बाद अनन्त अनन्त दुःखों की परम्परा इनके द्वारा मुझे प्राम हुए है । अतः इन त्यक्तपूर्व भोगों को फिर से प्राप्त करना मेरे तेजोमय आत्मा का अपमान है।
तिति कामेसु णासज, पत्तपवं अणंतसो।
दुक्खं यहुविहाकार, कक्कसं परमानुभं ॥ ८॥ अर्थ:-ये भोग अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। किन्तु यह आत्मा तृप्ति प्राप्त नहीं कर सकी । अपि तु इनके द्वारा बहुविध कर्कश और परम अशुभ दुःख प्राप्त किए हैं। गुजराती भाषान्तर:
આ ભોગ અનંત વાર પ્રાપ્ત થયા છે. પરંતુ આત્માને તૃપ્તિ થઈ નથી, પરંતુ તે દ્વારા બહુવિધ ભયંકર અને પરમ અશુભ દુઃખ પ્રાપ્ત કર્યા છે.
शाश्वत आत्मा ने एक ही नहीं, अनेक बार वर्ग के सिंहासन प्राप्त किये है। किन्तु सागरोपमों के वे असीम भोग भी यरिआत्मा को तुप्त नहीं कर सके तो सौ पचास वर्ष के सीमित भोग क्या तृप्ति दे सकेंगे।
कामाण सग्मणं दुक्खं, तित्ती कामेसु तुलभा।
विजुजोगो परं दुक्खं, साहक्खय परं सुहं ॥९॥ अर्थ:-कामों का अन्वेषण दुःश्च रूप है । काम में तो तृप्ति दुर्लभ ही है। और उनके वियोग के क्षणों में उससे भी अधिक दुःख है। अतः सदा सुख तो तृष्णा के क्षम में ही है।