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________________ י चतुर्थ अध्ययन w एक भारतीय कहावत है "सोना जाने घसे, आदमी जाने बसे" बाहर से सब सज्जन दिखाई देते हैं, किन्तु उसके शील ( स्वभाव ) की पहिचान साथ रहने पर ही हो सकती है। इंग्लिश में मी एक कहावत है All that glitters is not gold सभी चमकने वाला सोना नहीं हुआ करता है, बाहर से सोना दिखाई देता है, किन्तु जब हम कुछ दिन उनके साथ रहें. तात्म्य फिर भी हमारी पूर्व धारणाएँ स्थिर रहे तभी समझना चाहिये वास्तव में यह सोना है । अन्यथा माया के आवरण में अनेक रंगे सिगार घूमते हैं। उन 'सावधान रहना चाहिये । टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं। + यस्य पापं शीलं जानन्ति तेन संवस्तुं न शक्नुवन्ति मानवाः । तस्मात् परममत्यर्थ प्रतिष्ठा निगूढा भवन्ति मायया दुष्टमानसाः । जिसके पापभरे शील ( आचार) को हम जान लेते हैं उसके साथ रहना शक्य नहीं है, अतः दुष्ट हृदय वाले व्यक्ति माया से एकदम प्रतिच्छन्न रहते हैं । टीकाकार की प्रस्तुत व्याख्या जररा कुछ ठीक नहीं बैठती। क्योंकि "तस्मात्" से उसका अर्थ जमने के बजाय अधिक बिगड़ता है। यिदोसे निगूहते चिरं पिणोवदंसर ॥ हि मं कोपि ण जाणे जाणेण त्थ हियं सयं ॥ २ ॥ अर्थ :- अपने दोषों को छिता है । चिर समय तक भी अपने दोषों को किसी के समक्ष प्रगट नहीं करता है । वह सोचता है दूसरा कोई भी इस पाप को नहीं जान सकता, किन्तु ऐसा सोचने वाला अपना हित नहीं जानता । તે પોતાના દોષોને છુપાવે છે અને ઘણા સમય સુધી પણ પોતાના દોષોની ૠાલોચના કરતો નથી અને તે વિચારું કે મારા પાપોને બીજો કોઈ જાણતો નથી, પણુ આવો વિચારનાર પોતાનો જ અહિત કરે છે. पूर्व गाथा में साधक को प्रेरणा दी गई थी कि माया से छिपे हुए मनुष्यों से सावधान रहना चाहिये यहां उसी माया शील व्यक्ति का परिचय दिया गया है। मायावी (छली ) मानव बडी सफाई के साथ अपने दोषों को छिपात्रता है । उसे विश्वास रहता है कि इस घटना को केवल मैं ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । बस यही सोच कर वह निश्चिन्त रहता है। अर्थ :- उपरयत् । टीका :- निजदोषान् हि निगूहम्ले आत्मानं चिरमपि नोपदशैत्रेत् । हृद्द न कोऽपि मां जानीयादिति मत्वाऽऽरमहितं स्वयं न जानाति । जेण जाणामि अप्पार्ण आवी वा जति वा रहे ॥ अज्जयारि अणजं वा तं णाणं अयलं धुवं ॥ ३ ॥ अर्थ ': - जिसके द्वारा मैं अपने आपको जान सकूं, प्रत्यक्ष या परोक्ष में होनेवाले अपने आर्य और अनायें कमों को देख सकूँ, वही ज्ञान शाश्वत है। જેના વડે હું પોતાની જાતને જાણી શકું, પ્રત્યક્ષ અગર પરોક્ષમાં થનારા મૉરા આર્ય અને અનાર્ય કર્મીને તેઈ શકું તે જ સાચું અને શાશ્વત ગાન છે. मनुष्य दूसरे के पुण्य पाप का लेखा जोखा अधिक रखता है और उसी में अपनी ज्ञान गरिमा मान बैठता है। किन्तु अगिऋषि कहते हैं वही ज्ञान सत्य है जिसके द्वारा मैं अपने आपको जान सकूँ, मेरे अपने आर्य और अनार्य कम को पहचान सकूं 1 याणि भित्तीए चित्तं कट्ठे वा सुणिवेसितं । मस्स-हिय पुणिणं गहणं दुब्वियाणकं ॥ ४ ॥ अर्थ :- दीवारों पर अंकित सूत्र और क्राप्ट में आलेखित चित्र दोनों सुविज्ञात हैं । किन्तु मानव का हृदय गइन और दुर्विज्ञात है । ક્
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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