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________________ चतुर्थ अध्ययन साधना के पथ में आगे बढते साधकको प्रशंसा के फूल और निन्दा के शूल दोनों मिला करते हैं किन्तु लक्ष्य की और द कदमों से आगे बढ़ते साधक को ये फूल न लुभा सकते और न शूल की चूमन उसे पथ से भ्रष्ट कर सकती है, क्योंकि जन साधारण की प्रशंसा और निन्दा केवल स्थूल मापदण्डों को लेकर चलती है। कभी वह चोर की भी प्रशंसा है तो कभी मुनि का भी तिरस्कार कर डालती है। ऐसे क्षणों में साधक सावधानी के साथ अपने आपको संभाल रखे इसीका दिशा सूचन प्रस्तुत अध्ययन में मिलता है। भारद्वाज गोत्री अंगिरस भई तर्षि उपाच-- आयाणरक्खीपुरिसे परं किंचि ण जाणती ।। असाहुकम्मकारी खलु अयं पुरिसे ॥ अर्थ:---आहान रक्षा कर्मोपादान रूप परिग्रह का रक्षक मानव दूसरी कोई बात जानता ही नहीं है। ऐसा पुरुष वस्तुतः असाधु कर्म का करने वाला है। આદાનરક્ષી (લોભી માણસ) કર્મના મુળ હેતુરૂપ પરિગ્રહની રક્ષા કરે છે તે બીજી કોઈ વાત જાણતો જ નથી. એવો માણસ परिग्रह का पिपासु केबल ग्रहण किये हुए की रक्षा ही जानता है । वह आत्मा जघन्य कर्मों को करते हुए कभी हिचकेगा नहीं। टीकाकार बोलते हैं :-- भादान कीपादानं तद्रक्षति निगृह्यतीति आदानरक्षी, मातामरक्षी भषति पुरुषो न किंचिज्जानाति अपरं जनं। आदान अथोत् कर्म के उपादान की रक्षा करता है। उस छुपाता है वह आदानरक्षी है। कर्म का उपादान' अशुभ इति भी हो सकती है और उस अशुभवृत्ति के द्वारा एकत्रित परिग्रह भी कर्मोपादान है। आगम में कर्मादान की दूसरी व्याख्या मिलती है। गृहस्थ के वे व्यापार जिनके द्वारा गाद कर्म का बन्ध हो । वे पंद्रह प्रकार के व्यापार कर्मादान है। इच्छाओं के भारसे अत्यधिक दया हुभा व्यक्ति परिग्रह के उपार्जन और रक्षण के अतिरिक्त दूसरी बात नहीं जानता। "खलु अयं पुरिसे" की ध्वनि आचारांम सूत्र के “अयं रोणे अयं उवरण" ११,२से मिलती है। चोर को अंगलिनिर्देश पूर्वक बताया जाता है ग्रह चोर है । इसी प्रकार असाधु कर्म करनेवाले के लिये यहाँ अब पाठ आया है। पुणरवि पावेहिं कम्मे हिं चोदिज्जति णिचं संसारंमि अंगिरिलिणा भारदारण अरहता इसिणा। अर्थः-ऐसा मानवसंसार में पुनःपुनः पापकर्मों के लिये प्रेरित होता है भारद्वाज गोत्री अंगिरस अहर्षिने ऐसा कहा है। એવો માણસ સંસારમાં ફરી ફરી પાપ કર્મોથી પ્રેરાય છે. ભારદ્વાજ ગોત્રી અંગિરસ નામના અહંતર્ષિ એવું બોલે છે. टीका:-असाधुकर्मकारी खस्वयं पुरिसे पुनरपि पापकर्ममिः चोवयते नित्य संसारमिति । असाधुकर्म करने वाला यह पुरुष पुनः पापकों से संसारभव प्रमण के लिये होता है, अर्थात् परिग्रह के रक्षण के लिये कर्तव्याकर्तव्य भूलकर फिरसे पाप कर्मों को उपार्जित करता है। __णा संघसता सके सीलं' जाणित्तु माणवा || परमं खलु पडिच्छमा मायाप दुट्टमाणसा ॥१॥ अर्थ:-(किसीके) साथ रहे बिना उसके शील ( खभाव) को मनुष्य जान नहीं सकता। क्योंकि दुष्ठ प्रवृति के मानव सचमुच माया से छिपे रहते हैं। -पारस कम्मादाणाई समणोवासगरस जाणियचा न समायरियब्बा । उपासक दशा अ.१। २-सोमपीति । ३-तो संबसिच सक सीहं।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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