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________________ तृतीय अध्ययन रणे दवग्गिणा दहा, रोहंते वणपादवा । कोहग्गिणा तु दहाणं, दुक्खाणं ण णिवतई ॥ ९॥ अर्थ :- वन में दावाभि से दग्धवन फिर से ऊग आते हैं। इस प्रकार क्रोध की आग से दग्ध आत्मा दुःख के अंकुर फिर ऊग आते हैं। क्रोधाभि से दात्र आत्मा के लिए शान्ति का पथ निवेदित किया है। कोधित मानव कोध की माग के द्वारा अपने दुःख दाता को भस्म कर देना चाहता है, किन्तु बन के वृक्ष समान उसके दुःख फिर ऊग जाते हैं। कोषित आत्मा दुःख के निमित्त को सुख का कोटा मानता है और उसे समाप्त भी कर देता है। किन्तु वे दुःख नई कोंपल के साथ फिर से फूट पटते हैं और शत्रु की अपेक्षा दुगुनी शक्ति एकत्रित कर अपने वैर का प्रतिशोध लेते हैं । જંગલમાં દાવાનળ લાગતાં વૃક્ષો બળીન ફરી પાછા ઊગે છે. તે જ પ્રમાણે ક્રોધની આગથી દાજેલા આત્માના દુઃખના અંકુર ફરીથી ઉગી નીકળે છે. ક્રોધાગ્નિથી ખળતા આત્મા માટે શાન્તિનો રસ્તો બતાવવામાં નિવેદિત ) આવ્યો છે. ક્રોધિત મનુષ્ય ક્રોધની આગથી પોતાને દુઃખ આપનારને નષ્ટ કરી દેવા માગતો હોય છે, પરંતુ જંગલના વૃક્ષોની જેમ તેનાં દુઃખો ફરીથી ઉગી નીકળે છે. टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं वे कहते हैं कि : भरण्ये दावाग्निना दग्धा वनपादपाः पुनः रोहन्ति, सुनेस्तु क्रोधामिना दग्धानां निवर्तनं प्रत्यागमो न भवति ॥ कस्तु नाम दुःखानां प्रत्यागमं इच्छेत् ॥ अर्थात् वन में दार्वाभि से दग्ध-वन वृक्ष फिर से ऊग सकते हैं परन्तु मुनि की क्रोधाम से दग्ध दुःखों का प्रत्यागम नहीं हो सकता । वे दुःख पुनः लौट कर सुनि के पास नहीं आते। किन्तु कौन ऐसा होगा जो दुःखों का प्रत्यागमन चाहेगा । पर यह व्याख्या अस्पष्ट हैं । १५ એટલે કે જંગલમાં દાવાનળથી બળેલા વૃક્ષો ફરીથી ઊગી શકે છે; પરંતુ મુનિના ક્રોધાગ્નિથી અળેલાં દુઃખો ફરીથી આવી શકતા નથી. તે દુઃખો ફ્રીથી મુનિ પાસે પાછા આવી શકતાં નથી. પરંતુ કોણુ એવો હશે કે જે દુઃખોનું પ્રત્યાગમન ઇચ્છશે ?' પણુ આ વ્યાખ્યા અસ્પષ્ટ છે, का वही णिवारेतुं वारिणां जलितो बहि । सन्धोद हिजलेणा बि, मोहग्गी दुण्णिवारिया ॥ १० ॥ अर्थ :-- सदर की जलती हुई आग को पानी से बुझाना सरल हैं, परन्तु मोह की आग को बुझाने में संसार की अनन्त जल राशि भी असमर्थ है। બાહરની મળતી આગને પાણીથી બૂઝાવવું હેલ્લું છે, પરંતુ મોહની આગને મુઝાવવા માટે સંસારના બધી સમુદ્રોની અનંત જળરાશિ પણ અસમર્થ છે. जस्स एते परिण्णाता जातिमरणबंधणा । संचिनजातिमरणा सिद्धिं गच्छेति णीरया ॥ ११ ॥ अर्थ :- जिसे जन्म और मृत्यु के बन्धन परिशास हो चुके हैं वही परिज्ञात- आत्मा जन्म और मृत्यु के बन्धनों को तोड़कर कर्म धूल से रहित हो सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । જેણે જનમ અને મૃત્યુના બધનોને ઓળખ્યા છે, કર્મની રજથી રહિત થઈ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે. તે જ્ઞાની આત્મા જનમ અને મૃત્યુના અન્ધનોને તોડીને जन्म और मृत्यु में जिसे यथार्थतः बन्धन की अनुभूति होती है, वही बंधन को तोड़ सकता है। बंधन का परिशान होना ही जीवन की महत्वपूर्ण क्रान्ति है । अन्यथा आत्मा मौत से भागता है, पर जन्म से प्यार करता है और श्रेष्ठ स्थल में जन्म पाने के हेतु साधना भी करता है किन्तु स्थितप्रज्ञ आत्मा को न जन्म के प्रति मोह है, न मौत से वह भागता ही है किन्तु हाँ, आत्मविकास की दिशा में इन्हें बन्धन अवश्य मानता है । बन्धन का परिज्ञाता बन्धन तोडने की दिशा में भी आगे बढ़ता है । एवं से बुद्धे विरते। विपावे देते दविए अलंताती ॥ णो पुणरचि इत्थं यमागच्छति वि बेमि ॥ तईयं दविजस्यणं अर्थ :- देखिये प्रथम अध्ययन की अन्तिम गाथा । तृतीय दचिल अध्ययन समाप्त ॥ -0-4+--
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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