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उनतीसवां अध्ययन टीकाः सति सर्वतः स्रोतांसि, किं न स्रोतो निवारणम् ? कथं स्रोतः विधीयत इति पृष्टो मुनिराख्यायत् ।
सभी ओर स्रोत बह रहे हैं। जब तक आत्मा संसार स्थिति में है सम तक वासना उसके साथ है और बही वासना कर्मस्रोत को चालू रखती है। वह स्रोत क्या है उसका निरोध कैसे किया जा सकता है वर्धमान अर्हता उस पर विस्तृत प्रकाश डाल रहे है। बद्रमाणेण अरहता इसिणा युइयं
पंच जागरओ सुत्ता पंच सुत्तस्स जागरा।
चाहिं रयमादियांत पंचहिरयं टए॥२॥ अर्थ:-जिसकी पांचों इन्द्रियो जागृत हैं बह सुन है और जिसकी पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं वह आत्मा जायत है। पांचों इन्द्रियों के द्वारा ही आत्मा कर्म रजको प्रहण करता है और अप्रमत्त मुनि उनके द्वारा कर्म रज को रोकता है। ऐसा पर्दमान अर्हतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर:
જે માણસની પાંચે ઈદ્રિયો જાગ્રત છે. તે માણસ સુખ (મુતેલો) છે, અને જેના પાંચ ઇંદ્રિય સુH (વાસનાથી રહિત એટલે સુતેલી) છે, તે આત્મા જાગ્રત છે એમ સમજવું). કારણ પાંચે ઈદ્રિયોની મદદથી જ આત્મા કર્મરાજનો સ્વીકાર કરે છે અને શિયા મુનિ પીચ છ मईतर्विगोमा
पूर्व माथा में बताया गया है कि स्रोत बह रहे है क्या है प्रस्तुत माथा में उसे स्पष्ट किया है। पांच इन्द्रियां ही वह स्रोत है जिसके द्वारा आत्मा कर्म रज को ग्रहण करता है। जिसकी इन्द्रियां जानते हैं वह मुप्त है। इन्द्रियां जिसके घश में हैं वह साधक है और जो इन्द्रियों के वश में वह वासना का गुलाम हैं। उसकी स्थिति उस सबार जैसी होती है जिसके हाथ में लगाम नहीं है। उत्तके इशारे पर घोड़ा नहीं चलता अपि तु घोड़े के इशारों पर उसे चलना पड़ता है। इन्द्रियों के संकेतों पर चलनेवाला व्यक्ति सही लक्ष्य पर पहुंच नहीं सकता । गीता भी कहती है
'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिधिता' ।-गीता
अपनी इन्द्रियो जिसके वश में हैं उसी की बुद्धि स्थिर है। आगम में साधक के लिये निर्देश आया है उसकी इन्द्रियां प्रशस्त पथ की ओर है तो वह उन्हें चलने दे किन्तु जब वे अपशस्त्र पथ में जाने लगे तभी उनकी गति को रोक दे, जैसे कछुआ जब अपने आपको सुरक्षित समझता है तब तक माजादी से घूमता है किन्तु जिस क्षण उसे प्रहार की आशंका होती है उसी क्षण अपने अंगों को समेट लेता है। साधक प्रशस्त पथ का उपासक है वह प्रशस्त पथ में ही गति करे।
दक्षिण के महान संत तिरुवल्लूर भी अपने विरल में लिखते हैं जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने में खींचकर रखता है जिस तरह कछुआ अपने हाथ पांव को खींचकर भीतर छिपा लेता है, उसने अपने समस्त आगामी जन्मों के लिये खजाना जमा कर रखता है।
टीका: जागरतोऽप्रमत्तस्य मुनिरिन्द्रियाणि पंच सुप्तानि, सुसस्थामुनेस्तु पंच जागरति । पंचभिः सुप्ते रज आदी. यते, पंचम्यो जाग्रद्भिः रजः स्त्राप्यते ।।
अप्रमत्त साधक की पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं जब कि प्रमत्त साधक की पांचों हन्द्रियां जागृत रहती हैं। सप्त साधक पांचों इन्द्रियों के द्वारा कर्म रज ग्रहण करता है जब कि जाग्रत साधक पांचों इन्द्रियों के द्वारा कर्म रज को रोकता है।
सई सोतमुपादाय मणुपण वा वि पावगं । मणुण्णम्मि ण रजेज्जा ण पदुसेजा हि पावए ॥ ३॥ मणुण्णम्मि अरजते अदुढे इयरम्मि य ।
असुत्ते अविरोधीणं पवं सोप पिहिजति ॥ ४॥ १ जहां कुम्मो विवस अंगाई स देहे समाहरे । यदा संहरते चामं कूर्मोकानीच सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। गीता अं० २ श्लो०२८