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________________ इसि-भासिया अर्थ:-श्रोत्र के द्वारा मनोज्ञ अधवा अमनोज्ञ शब्द को पाकर साधक समचित्त रहे । मनोज्ञ शब्द में अनुरक्त न हो और अमनोज्ञ पर द्वेष न करे । मनोज शब्दों में अनुरदक न हो और अमनोज्ञ में देष न करता हुआ साधक अविरोधी में जाप्रत रहकर कर्म स्रोत को रोकता है। गुजराती भाषान्तर: સાધકે સુંદર કે મીઠા શબ્દો કે ખરાબ શબ્દો સાંભળીને ( ચલિત ન થના) સમચિત્ત રહેવા જોઈએ. મીઠા શબન્ને આકર્ષિત થવું ન જોઈએ ને ખરાબ શકોપર પણ દ્વેષ કર ન જોઈએ. મીઠા શબ્દોમાં અનુરાગ ન કરતા અને દિલ દુખાવનાર શબ્દોમાં દુખની ભાવના ન રાખનાર સાધક અસંરક્ષણ અને સાવધાન રહી કર્મોતને બંધ शश छे. / कर्णेन्द्रिय का स्वगाव है शब्द को प्रहण करना । अच्छे या बुरे मधुर या कटु, जो मी शब्द आते हैं कान उसको ग्रहण करेगा ही। साधक कान को बन्द करके चल नहीं सकता और चलना चाहिए भी नहीं । उसका काम इतना ही है कि वह मधुर शब्दों पर अनुरक्त न होकर उसमें अपने कर्तव्य को भूल न जाए। मधुरता के प्रवाह में न बह जाए और कटु शब्द कान पर आवें तब भी वह अपना विवेक न खो बैठे। क्योंकि किसी भी मूल्यवान वस्तु को खोकर भी मनुष्य इतना नहीं खोता जितना कि वह अपना विवेक खोकर सोता है। हजार रुपये होकर आपने कुछ नहीं खोया हैं किन्तु जब आप अपना मिजाज खो देते हैं तब आप समझ लीजिए कि आपने सब कुछ खो दिया। श्रवणेन्द्रिय अपना काम करे और साधक अपना काम करे, उसके बहाव में वह अपनी समभाव की साधना न सोये । रूचं चक्खुमुवादाय मणुण्णं चावि पायगं। मणुणमि पा रज्जेज्जा पदुज्मा हि पावर ।। ५ ।। मणुणमि अरज्जंते अदुढे इयरम्मि य । असुरते अधिरोधीणं एवं सोप पिहिज्जति ॥ ६॥ अर्थ:--चक्षु के द्वारा सुन्दर या असुन्दर रूप को ग्रय करके साधक मनोज्ञ में रक्त न हो और अमनोज्ञ पर प्रद्वेष न करे। मनोज्ञ में आसक्त न हो और अमनोज्ञ में ट्रेप न करे । साथ ही अधिरोधी रूप में जाग्रत रह कर साधक स्रोत को रोक सकता है। गुजराती भाषान्तर: * આંખોથી ખબસૂરત કે બદસૂરત જોઈને સાધકના મનનાં સુંદર માટે આસન કે ખરાબ માટે દેવ ઉત્પન્ન થવો ન જોઈએ. સુંદર રૂપમાં અનાસક્ત અને ખરાબ સ્વરૂપમાટે તિરસ્કાર ન છતાં પણ અવિરોધી પોતાની ભૂમિકામાં જાગૃત રહી સ્ત્રોતને રોકી શકે છે. मनोज और अमनोज्ञ रूप में साधक रामस्थिति रखे। जो रूप उसके साधना पथ में अविरोधी है उसमें सदैव जाग्रत रहे । ऐयापन, देव और गुरु के दर्शन, खाध्याय आदि में चक्षु का उपयोग आवश्यक है और वह साधना में अविरोधी है अतः उसके लिये साधक सदैव जाग्रत रहे । गंध घाणमुवादाय मणुण पावि पावगं । मणुगणं मि ण रज्जेज्जा ण पदुसेजा हि पावर ॥ ७ ॥ मगुण्णमि अरजते अदुठेयरम्मिय। __ असुत्ते अविरोधीणं एव सोप पिहिज्जति ॥ ८॥ अर्थ:- नासिका के द्वारा सुगंध या दुर्गध को ग्रहण करके साधक सुगन्ध में आसक्ति न रस्से और दुर्गन्ध पर प्रद्वेष न करे । मनोज्ञ गंध में आसक न हो और अमनोज्ञ में प्रद्वेष न करे और अविरोधी गंध पर सजग रहे । इस प्रकार साधक स्रोत को रोक सकता है। गुजराती भाषान्तर: નાકથી ખુશી કે ખરાબ વાસ લઈ લેવો, પણ) સાધકે સુગંધ ઉપર આસક્તિ રાખવી નહી કે પરાબ વાસને ષ પણ નહી કરવો. સુગંધ ઉપર મોહિત ન બનવું અને દુર્ગધ તરફ જરાપણ તિરસ્કાર કરવો નહી અને એવી રીતે પિતાના અવિરોધ વૃત્તિ રાખી સાધક સ્રોત (ઈદ્રિ) પર નિર્બધ રાખી શકે છે.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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