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"इसिभासियाई" सूत्रपरिश्रय ऋषियों के उपदेशों को तत् तत् विशेषणों के साथ संगृहीत किया गया। यह सांप्रदायिक उपनाम भेद दर्शन के लिये था । साथ ही यह इस बात का प्रतीक है कि संप्रदायिक भेद होने पर भी तत्वज्ञों के तत्वज्ञान में एकरूपता कैसे संभावित हो सकती है। विचार की नीची भूमिका तक उसमें विरोध और विभेद पाये जाते है पर जब चिन्तक विचार की अमुक सीमा पार कर जाता है तो उसके चिन्तन में एकरूपता संभाषित हो सकती है। फिर वेश और संप्रदाय उसे अपने में बांध कर रख नहीं सकते वह ज्यों ज्यों ऊपर उठता है त्यो त्यों पंथ, जाति, लिंग और वेश की दीवारें एक एक करके दहती जाती हैं और एक दिन बह सबका हो जाता है सब उसके हो जाते है। यही कारण है भ० ऋषभदेव को हम प्रथम अर्हत् के रूप में पूजते हैं तो वैदिकदर्शन उन्हें ऋषमावतार के रूप में देखता है।
जैन संस्कृति यद्यपि आज पंथ और वेश की श्रृंखलाओं में जकड़ दी गई है फिर भी एक दिन उसका स्वर पंथ और वेश पूजा के विरोध में जाग्रत था। उसने वेश-पूजा नहीं गुण-पूजा का महत्व स्वीकार किया था । इसीलिये आत्म विकास की सर्वोत्तम श्रेणी (स्टेज) पर पहुंचने के लिये उसने पंथ और जाति का कोई आग्रह ही न रखा । उसने यह नहीं कहा क्षत्रिय ही मोक्ष पा सकता है. वैशा नहीं या ब्राह्मण ही मोक्ष पा सकता है, शूद्र नहीं। सभी वर्ण और सभी वर्ग के व्यक्ति मोक्ष के अधिकारी हैं । उसने यह भी नहीं कहा कि तुम अमुक वेश धारण करो तभी मुक्ति पा सकोगे या अमुक पंथ में दीक्षित हुए बिना या अमुक प्रकार के विशेष अचेन पूजन या क्रियाकाण्ड किये बिना तुम्हें मोक्ष नहीं मिल सकेगी। वह यह नहीं पूछता तुम किस संप्रदाय में दीक्षित हुए हो या किस के शिष्य हो ? तुमने कितने वर्ष संयम पाला है ? वह तो पूछता है अन्तःशुद्धि तुमने कितनी पाई है यदि अन्तःशुद्धि आ गई है तो गृहस्थ दशा में भी मोक्ष के अधिकारी हो और अन्तःशुद्धि नहीं है तो मुनि वेश में भी मुक्ति नहीं है। यही कारण है कि मरुदेवी-माता गृहस्थ रूप में मुक्त हुई है । सम्राट भरत चक्रवर्ती के रूप में ही कैवल्य पागये । भगवान् महावीर के शिष्यों में एक ओर गौतम जैसे श्रमण थे तो दूसरी ओर आनंद जैसे उपासक है तो अंबड जैसे परिव्राजक्र, परिव्राजक के रूप में उनके शिष्य थे । तो चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचिकुमार त्रिदंडी के रूप में भ० अषमदेव के शिष्य थे।
वेश और पंथ की सीमा तोड़कर आत्म-दृष्टि प्राप्त करनेवालों का समन्वय हम ऋषिमापित में पाते हैं।
ऋषिभाषित का परीक्षण
ऋषिभाषित का अन्तस्तल देखने के बाद हमें इसकी प्रामाणिकता पर विचार करना होगा। स्थानकवासी परंपरा केबल बत्तीस सूत्रों को लेकर ही चली है और बत्तीस में ऋषिमाषित का समावेश नहीं है। फिर तेतीसवां सूत्र कैसे मान्य होगा ! अनुवाद के समय यह प्रश्न मेरे पास आया भी था । बम्बई में एक भाई ने मुझसे प्रश्न भी किया था महाराज आप तेतीसवें सूत्र का अनुवाद कर रहे हैं ? मैंने कहाः जी हां; हर्ज क्या है ? । उन्हें मेरे उत्तर पर आश्चर्य अवश्य हुआ। हमें सोचना होगा हम बत्तीस ही में क्यों बन्ध गये ? बत्तीस ही क्यों ?
ऐसा कहा जाता है कि स्थानकवासी परम्परा ने बत्तीस आगमों को स्वीकार किया है और शेष आगमों को आधारभूत प्रमाण न मानकर उनकी उपेक्षा करदी। अब जरा देखना होगा वह कौनसा प्रमाण है जिसके द्वारा उसने ३२ आगमों को सम्यक माना है और शेष को मिथ्याश्रुत का करार दे दिया। कहा जाता है कि बाह्याडंबर
और प्रवृत्ति धर्म के प्रति ऐक्रांतिक विरोध रखकर चलने के कारण उसने मूर्ति-पूजा को आगम विरुद्ध घोषित किया है और जिन आगमों में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं था केवल उन्हीं को मान्य रखा है । जिन आगमों में मूर्तिपूजा का विधान मिलता है उन्हें ठुकरा दिया गया।