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________________ इसि-भासियाई जिसकी आत्मा छिये पाप के प्रति विद्रोह कर उठती है और उसकी वाणी या लेखनी द्वारा समाज की पाप कहानी के नाम चित्र उतरने लगते हैं तो समाज चीम्ब पड़ती है- “यह गहार हैं।" इसने समाज की सुदृढ़ मित्तियों पर कर प्रहार किये हैं। यह समाज की फुलवारी में आग का कार्य कर रहा है और समाज के अधिनायक उसे समाज में से उसी भांति निकल फेंकते हैं, जैसे दूध में पड़ी मक्खी को फेंक दिया जाता है । यह पुरस्कार है उसकी विद्रोही आत्मा का जो समाज की पाप कहानी के प्रति अंधा, गूंगा और बहरा नहीं बन सका है । यह दंड है उस चिकित्सक का जिसने फोड़े को नुकीली सुई से बींध दिया और भीतर ही भीतर सड़ने वाला मवाद बाहर आगया । सच तो यह है अधर्म की जड़ें सामाजिक इन्कार और स्वीकार में नहीं, मिथ्याभिनिवेश, राग और द्वेष में है । हमाग कार्य कितना भी मोहक क्यों न हो, समाज स्वीकृति की मुहर भी क्यों न लग चुकी हो, किन्तु यदि उस कार्य के पीछे वैयक्तिक स्वार्थ झांक रहा हो राग और द्वेष से छानकर उसकी अनुभूति आ रही हो तो बह अधर्म ही कहा जायगा। फिर मैले उस पर कितने ही शास्त्र--वाक्यों के पर्दे ही क्यों न पड़े हों चांदी और सोन के आवरण से उस क्यों न ढक दिया गया हो ! पारदर्शी की आंखें उन सोने और सूत्रों के पर्दे को चीरकर छुपे पाप को खोज ही लेगी और उसके कान पाप की करुण कसक को चांदी खनखनाइट और शास्त्र रटन के महा घोष में भी सुन ही लेंगे। वस्तुतः पुण्य और पाप की तमाम क्रियाओं के पीछे यदि अज्ञान बोल रहा हो तो ये क्रियाएं जीवन पथ विधायिनी नहीं बन सकती ।। ऋषिभाषित का अन्तस्तल ” ऋविभाषित दार्शनिक ग्रन्थ नहीं एक आध्यात्मिक सूत्र है । इसमें दर्शन की नहीं जीवन की उलझी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है । प्रत्येक धर्म में ऐसे विचारक सन्त भी आते हैं जिन्हें संप्रदायवाद की लोहशंखलाएं बांध नहीं पाती हैं। जो रहते तो संप्रदाय में ही हैं, पर उनका चिन्तन संप्रदायातीत होता है । अखि शरीर के विशेष भाग में रहकर भी शरीर और शरीर से अतिरिक्त वस्तुओं को देखती है । स्थूल चक्षु के लिये यह संमत्र है कि शरीर से भिन्न वस्तु को भी देखें । उसके लिये किसी का विरोध भी नहीं है पर अन्तश्रा की कहानी कुछ दूसरी होती है। यदि अन्तश्चक्षु खुले हैं तो वह दूसरे धर्म का भी वैसा ही सत्य निरीक्षण करेगा जैसा कि अपने धर्म का करता है पर निरीक्षण की सत्यता की पहली शर्त है आँखे खुली हो । जो आंखें खुली रखकर चलता है वह टकराता नहीं है । मार्ग के अवरोधक पदार्थों को वह देखेगा जरूर, पर उनसे लड़ने मिड़ने को तैयार न होगा, उनसे बचकर ही निकलने की उसकी चेष्टा रहेगी। धर्म और दर्शन के सम्बन्ध में भी यही बात है जो आंखें मूंदकर चलते हैं उन्हीं में टक्कर और संघर्ष होते हैं । जिन संप्रदायों और जिन पार्टियों के बीच जितने ज्यादा संघर्ष होंगे वह उतना आंख मूंद कर चलनेवालों का समुदाय होगा। (तत्त्व-चिन्तक विरोध में अविरोध पाता है । इसी विशाल दृष्टि के द्वारा वह संतवृत्ति पाता है। हजारों वर्षों से साथ बहनेवाली भारत की तीन संस्कृतियों के तत्व चिन्तकों की अविरोध दृष्टि का परिचय ऋषिभाषित में मिलता है । प्रस्तुत सूत्र में जहां कुर्मापुत्र, तैतिलपुत्र जैसे जैनदर्शन के तत्व चिन्तक हैं तो अंगिरस और देवनारद वैदिक दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ ऋषि भी आये हैं । पिंग और इसिगिरि जैसे ब्राह्मण परिव्राजक आये हैं तो साति-पुत्र जैसे बौद्ध भिक्षु भी आये हैं। पिंग और इसिगिरि के साथ" माहण परिवायेण का विशेषण है जो उनके ब्रामण वंश का परिचायक है । सातिपुत्र के साथ बुद्धेण अरहता विशेषण उनके बुद्धानुयायित्व का संसूचक है । इस संकलन से यह परिलक्षित होता है कि संप्रदायवाद के संघर्ष के युग में एक धारा वह भी आई थी, जिसने संप्रदाय से ऊपर उठकर सोचा था । संप्रदाय भेद होने पर भी तत्व चिन्तन में जहां एकरूपता पाई गई उन सभी
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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