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"इसिभासियाई" सूत्रपरिचय आत्मा के प्रति वफादार नहीं है। वह आत्मदर्शी नहीं है, अपतर्षि अंगिरिसी ऐसे ही जीवन के बहुरूपियापन का दूसरा चित्र दे रहे हैं:
__ अदुवा परिसा मज्झे अदुवाविरहे कड़े। " ततो णिरिक्ख अपाणं पाव कम्माणिसम्मति ॥
-ऋषि, गा० १०. ' शास्त्रों का प्रचार अकेली जीभ से या संपत्ति स नहीं हुआ करता है । उसके पीछे हृदय की साधना चाहिये । जीभ आगम को जनता के कानों तक पहुंचा सकती है। संपत्ति शास्त्रों को संगमरमर की दीवारों में अंकित करवा सकती है पर हृदय की दीवारों में अंकित करना उसके वश से परे है। यही सत्य आपको निम्न गाया में मिलता है।
सुयाणि भित्तिए चित्तं कट्टेवा सुणिये सितं । मणुस्स हिय ये पुणिणं गहणं दुम्वियाणकं ॥
ऋषिभाषित अ. ४, गा०६ जिसके पास साहित्य की विशाल संपत्ति है वह अकिंचन होते हुए भी हृदय का सभ्राद है । फिर उसके पास एक नया पैसा भी न हो तब भी भिखारी पन या दीनता उसके मन को छुएगी तक नहीं। दुनिया दुःख से भागती है किन्तु कार्यों द्वारा बह दुःख को निमंत्रण भी देती है । पर सन्तके मन पर दुःख सवारी नहीं कर सकता। न दुःख में दीनताही उसपर छा सकती है । वज्जिय पुत्र अर्हतर्षि इसी तथ्य को निम्न गाथा में प्रस्तुत कर रहे हैं।
जस्स भीता पलायन्ति जीवा क्रम्माणुगामियो । समेषादाय गति किला दिव वाहिणी ।।
भ, २, गा० १. साधक के पास मन की वह साधना होती है कि बाहिरी सुख और दुःख उसके पास पहुंच ही नहीं सकते। बाहिरी आलोचना उसकी मनःशान्ति को मंग नहीं कर सकती । आलोचना के तीक्ष्ण प्रहारों के समय वह सोचता है किसी के कहने मात्र से कोई बुरा नहीं हो जाता | उसका चिन्तनशील मन बोलता है यदि सचमुच मुझ में दुष्टता भरी है और यह उस दुष्टता का उद्घाटन कर रहा है तब भी मुझे उसके लिये रोप नहीं करना चाहिये । जीवन में दुःख की सही घड़ियां वे हैं जब कि हम बुरे हों और दुनिया हमें अच्छा समझकर प्रशंसा के फूल चढ़ाती हो । भारद्वाजगोत्री अंगिरस ऋषि कहते हैं:
जइ मे परो पसंसाति असाधु साधु माणिया । मे सातायए भासा अप्पाणं अलमाहिते।
ऋषिभाषित अ. ४१। इस प्रकार ऋपिभाषित सूत्रकार साधक को आलोचना और प्रत्यालोचना के द्वन्दू में भी स्थितप्रज्ञ रहने का परामर्श देते हैं । ऋषिभाषित सूत्र में सर्वत्र आपको जीवन के अन्तर्तम को आलोकित करनेवाले सीप और मोती विखरे मिलेंगे।
ऋषिभाषित एक शुद्ध आध्यात्मिक सूत्र है, वह आत्मदर्शन का प्रतिपादन करता है । आत्मा की विकृतियों को दूर कर शुद्ध खरूप की प्राप्ति की प्रेरणा देता है। कहीं यह कषाय विजय की प्रेरणा देता है तो कहीं समभाव की साधना का पाठ पढ़ाता है । कहीं आत्मिक खेती का निरूपण करता है । बत्तीसवें अध्याय में सुन्दर शैलिमें आध्यात्मिक खती का रूपक दिया गया है। आत्मा को क्षेत्र तप को बीज और संयम को युग नांगल बताया गया
१. आता खेसं तनो चीजे संजमो जुअणंगलं।
ऋषि, अ. ६२.