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इस भासिथाई
जितने औपातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी, पारिणामिकी बुद्धि से युक्त मुनि होत हैं उतने ही प्रत्येकबुद्ध होते हैं। अतः यह मानना आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बुद्ध केवल चार ही है ।'
ऋषिभाषित के प्रवक्ता अतर्षि हैं । अतः उनका वचन प्रमाण माना गया है । आगम बोलते हैं अभिन्नदशपूर्बंधर निश्चयतः सम्यकूदृष्टि माने गये हैं और उनका श्रुत सम्यवश्रुत है । इस रूप में प्रोक्युद्धों का यह प्रवचन सूत्र सम्यक् श्रुत के अन्तर्गत ही माना जाना चाहिए । पर वे सभी दश पूर्वार हैं उसका क्या प्रमाण ? हमारे पास कोई निश्चित प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि वे सभी सर्वज्ञ थे या दश पूर्वघर थे फिर भी प्रायः सभी ऋषियों के नाम के साथ अतर्षि पद आया है । अर्हन् + ऋषि के रूप में पदविच्छेद करने पर फलितार्थ होगा सभी ऋषि अर्हत् पद पर पतिष्ठित हैं । यदि अर्हतर्षि का अर्थ केवल इतना ही लिया जाय कि वे सभी आईत परंपरा में दीक्षित हैं। इतने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि वे अभिन्न दशपूर्वी हैं। ऐसा स्पष्ट आधार भी नहीं है और मिलता भी नहीं है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विशिष्टज्ञानी आवश्यक थे, क्यों कि ये प्रत्येक बुद्ध थे और प्रत्येक के साथ अतर्षि पद आया 1
ऋषिभाषित का अन्तर्दर्शन
ऋषिभाषित अन्तर के उद्बोधन का सूत्र है । जीवन और जगत के रहस्य ज्ञाताओं ने मानव की वृत्तियों को एक एक कर उठाया और उनका विश्लेषण किया है। कभी कभी वे हमारे अन्तर को झकझोर देते हैं तो कभी बहिर्मुखता को अन्तमुखी वृत्ति के रूप में प्रदर्शित करने की वृत्ति को प्रताड़ित करते हैं। आज के साधक जीवन की बहुत बड़ी बिडम्बना यह है कि उसमें एक रूपता नहीं है उसका बहिरूप कुछ और हैं तो उसके अन्तर में दूसरी वृत्तियाँ काम कर रही हैं ! ऊपर की रहने का प्रयास किया जाता है और आश्चर्य तब और होता है जबकि वे वैशपूजक श्रमण केवल वेश की प्रतिष्ठा स्थिर रखना चाहते हैं और जब कभी उनके सामने पेश की प्रतिष्ठा को धक्का लगाने की घटना होती है तो वेही अन्तरसंगी साधक उनसे बोल उठते हैं तुमने मानव जन्म लिया है। मुनिवेश का परिधान लिया हैं और श्रमण परंपरा की कलंकित करने का कार्य तुम कर रहे हो। वेश पूजा का सुन्दर चित्र प्रस्तुत गाथा में मिलता है ।
अब्रद्दा समणे होई अनं कृति कम्मुणा अष्णमण्णाणि भासते माणुस्सा हणे हुसे ॥७॥
ऋषिभाषित . ४, गा. ७
साधक जीवन में बहुरूपता को स्थान नहीं है । जनता के सामने जिसका रूप कुछ दूसरा है और जनता की आंखों से ओझल होते ही उसके जीवन की गति दूसरे प्रवाह में बहने लगती है। नगर में कुछ दूसरा रूप है तो आम की भोली जनता के समक्ष उसके क्रिया कलापों में भिन्न रूपता आती है तो समझना होगा वह साधक अपनी
१. एवं माझ्याई चउरासी पइलग सहस्सा भगवओ अरहा. सहसा मिस्स भाइतित्ययररसः तहा संखिचाई पन्नगसहस्साई मज्झिमग गाणं जिणवराणं चोइस पन्नगसहस्राणि भगवओ वृद्ध माणसामिस्स अहवा जस्ता जतिआ सीसा उप्पत्तिआए वेणइआए कम्प्रिया परिणामियाए चविहार बुद्धिए उनबेया तस्स तत्तियाई पइनगसहस्साई पमेय बुद्ध। त्रि तत्तिया चेव । नन्दी सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयगिरि लिखते हैं- यस्य ऋषभादे तीर्थंकृतो यावत् शिष्यास्तीर्थं औत्पत्तिक्या वैयिक्या कर्मज्या पारिणामिका चतुर्विधया बुद्ध्या उपेताः समन्विता आसीत तभ्य ऋषभादेस्तानन्ति प्रकीर्णक सहस्राभवन् प्रत्येक बुद्धा अपि तावन्त एव । अत्रे वावक्षत-इह एक कली यकृत स्वीर्थेऽपरिमाणानि प्रकीर्णकाने भवान्ति पीक अरिणामपरिमाणत्वात् केवल सिंह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि । प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाण प्रतिपादना तस्मादेतत् प्रत्येकबुद्धानां शिव्यभावो विध्यते तदसमीचीनम्, यतः प्रब्राजकाचार्यमेवाधिका शिष्यभावो निषिध्यते नतु तीर्थंकरोपदिष्टशासनात्प्रतिपन्नरवेनापि ततो न कश्चिद्दोषः ।
२. चौदस्तपुव्विरस सम्ममुयं अभिण्ण दसपुब्बिस्स सम्मस्य तेण परं भिण्णेसु भयणा | नंदी सू० ४०