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इसि-आसियाई टीका:-कथमेतदिति कथं सा क्षीणकषायता दानतेन्द्रियतेत्युच्यतेसा भवति विगतरागता । सरागस्याप्यपेक्ष्येति केवले खीविषये न तु सर्वथा हतमोहस्येत्यर्थेव दयते तत्र तोतरेषु कुलेषु पिंड गवेषमाणेत्यादि पूर्ववत् सा प्रादुर्भावः कथमिति मूलधातेत्यादि पंचदशाध्ययनवत् ।
टीकाकार का भिन्न मत इस प्रकार हैप्रश्न :-वह क्षीण कषायता और दान्तेन्द्रियता कैसे संभव है।
उत्तर :-वह विगतरागता सराग मात्मा में भी होती है । केवल सर्वदा मोह विजेता में ही यह नहीं होती है। यही अर्थ यहां देखा जाता है।
प्रश्न:-तत् तत् विशिष्ट कुलों में पिंड-भोजन की गवेषणा-खोज करने वाले साधक के मन को वासना क्यों नहीं स्पर्श करती है ।
उत्तर:-मूल के नष्ट होने पर फलादि नहीं होते हैं । पन्द्रहवें अध्ययन में प्रस्तुत श्लोक आ चुका है।
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधक वीतरागता का पथिक है । सम्पूर्ण मोह विजेता ही काम विजेता होता है। किन्तु सराग आत्माएँ भी इस प्रकार काम पर विजय पाते हैं कि नारी का अनिन्ध सौन्दर्य उनके मन के एक अणु को आकर्षित नहीं करता है। साधना का सही उद्देश्य भी यही है कि यह वृत्तियों पर विजय पाए ।
से कथमेत ? हत्थि महारुक्खणिरिसणं तेल्लापाउधम्म किंपागफलणिदरिसणं से जथा णाम ते साकडिए अक्खमक्षेजा पस में जो भजिस्सति भारं च मे वहिस्सति एवमेओवमाए समणे निग्गंथे हिंडाणेहिं आहारं आहारेमाणे या णो अतिकमेति, वेदणा वेयावच्चे तं चेव ।
अर्थ:--प्रश्न:-बह साधना कैसे संभव है ?
उत्तर:-जिस प्रकार से इखि महाक्ष को गिरा सकता है उसी प्रकार काम साधनारूप वृक्ष को नष्ट कर सकता है। अतः साधक उससे बन कर तेलपात्र धारक की भांति अप्रमत्त हो कर घूमता है । और भौतिक सुखों में किंपाक कल की छाया देखता है। जैसे कि एक सारथी धुरा के लिए बोलता है कि यदि यह नहीं टूटेगा तो मेरा बोभ भी हो सकेगा। इसी रूपक से मुनि का आहार उपमित है। श्रमण निर्ग्रन्थ छः स्थानों से छ: कारणों से भोजन करते तो ये अपने मुनि धर्म की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं। ये ये हैं वेदना, वैयाघृत्य, ईरियासमिति, संयम, प्राणनिर्वाह और धर्म चिन्तन । गुजराती भाषान्तर:
પ્રશ્ન-એ સાધના કેવી રીતે થઈ શકે છે?
ઉત્તરઃ-જેવી રીતે હાથી મોટા ઝાડને પાડી શકે છે તે જ પ્રમાણે કામ સાધનારૂપ વૃક્ષને નષ્ટ કરી શકે છે. માટે સાધક જેના હાથમાં તેલથી ભરેલું વાસણ હોય તેવા માણસમુજબ સંભાળીને સાવધાનથી ચાલે છે. અને ભૌતિક સુખોમાં ક્રિપાક (જહરી) ફળની છાયા જુએ છે. જેવી રીતે એક સારથી ધુરા માટે કહે છે કે જે આ તૂટશે નહીં તો મારો ભાર પણ ઉપાડી શકશે આ રૂપકથી મુનિના આહારનો દાખલો આપ્યો છે. શ્રમણ નિથ છ સ્થાનોથી છ કારણોથી ભોજન કરે છે, તે તેઓ પોતાના નિધર્મનું ઉદ્ઘઘન કરતા નથી. તે આ પ્રમાણે છે. (1) ना, (२) वैयार (3) रियासमिति (४) संयम, (५) नियहि भने (६) धर्म-चिन्तन.
साधक ग्राम और नगरों में घूमता है । ओलों का खभाव देखने का है । सौन्दर्य उसके सामने आता है । तब भी वह देखता है और कुरूपता पर मी उसकी दृष्टि जाती है। फिर भी साधक अपने मन पर विवेक का अंकुश रखे । वासना के कटु विपाक उसकी आँखों के सामने रहेगे, तो वह अपने मन को साधने में सफल हो सकेगा । जिसप्रकार मन गज एक ही प्रहार में विशाल वृक्ष को उसाब देता है, इसी प्रकार काम भी साधना को उखेद सकता है। इस घुव सत्य को साधक अपनी आंखों के सामने रथे । तेल पात्र धारक जिसकी कहानी इसी सूत्र के पैंतालीसवें अध्ययन में आती है उसकी भांति अप्रमत्त रहे । मीठे लगने वाले भोगों में वह किंपाक फल की छाया देखता रहे । इस प्रकार वह मन को साथ सकेगा। किन्तु मन के साथ ही तन की भी कुछ समस्या है। साधना का यह तो अर्थ नहीं होता कि चारित्र लेते ही वह संथारा करके मृत्य की उपासना करे। अतः उसके पास तन है तो उसकी समस्या को भी हल करता रहे।