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________________ पच्चीसवां अध्ययन वह आदार भी ग्रहण करे किन्तु उसके भोजन में भी विवेक ही आगे रहे । उसका भोजन इस लिए नहीं है कि शरीर पुष्ट बने और वृत्तियों खुल कर खेलें । वह भोजन इसलिए करता है कि शरीर से उसको काम लेना है। शरीर एक रथ है, आत्मा उसका सारथी है। सारथी का कर्तव्य हो जाता है कि रथ को सुरक्षित रखे। क्योंकि शान्त शरीर में ही शान्त दिमाग रह सकता है Sound mind found in a sound body. __ अतः साधक जीवन रथ को चलाने के लिए आहार ग्रहण करता है। जिस प्रकार शक्ट बाइक सारथी यह सोचता है कि रथ यदि तुरक्षित है तो मेरा बोझ यथा स्थान पहुंच सकता है । इसी भावना से अनुप्राणित हो कर साधक भोजन करता है। आगम में इसके वेदनादि छ कारण दिए गये हैं। टीका:-स शुद्धपिंडः कथमिति हस्तिमहावृक्षनिदर्शनं पाउत्ति पात्रं तैरुपानधर्ममप्रमादगुणवर्णनगर्भपंचत्वारिंशदध्ययनस्य द्वाविंशे श्लोके सूचित किंपाकफलैनिदर्शनमूढावप्रकाशकं च । अपरं च यथा नामैकः शाकतिकोऽयं म्रक्षेदेष मम न भक्ष्यति भारं च मे वाहिष्यति चिन्तयश्चेतयोपमया श्रमणो निम्रन्थः षट्स स्थानेष्वाहारं आहारयजातिकामति तद्यथा-वेदनावैयावृत्यैर्या प्राणवृत्तिधर्मचिन्त्येत्येतेषामर्थाय । गतार्थः । से जधा पामते जतुकारए इंगालेसु अगणिकायं णिसिरेया पस मे अगणिकाए णो विज्साहिति जतुं च ताघिस्सामि, एवमेवोक्माप समणे निग्गंथे छहि ठाणेहिं आहार आहारेमाणे पो अतिकमेति वेदणा वेयावचे तं चेव । अर्थ :--जैसे एक लावाकार अर्थात राम का नाम करने वाला कोयलों में अपि प्रज्वलित करता है और विचार करता है कि यह अग्नि बुम न जाए उसके पहले ही मैं लाख को तपा लूंगा। इसी उपमा से मुनि को आहार उपमित किया गया है। श्रमण निर्ग्रन्थ छः स्थानों से आहार करते हुए मुनिधर्म का अतिक्रमण नहीं करते हैं। वे कारण है वेदना वैयावत्य आदि। वेयण बेयायचे, हरियट्ठाए य संजमाए । तह पाणवत्तियार, छटे पुण धम्मचिंताए। -उत्तरा० अध्ययन २६ गाथा ३३ ॥ गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે લાક્ષાકાર એટલે કે લાખનું કામ કરનાર કોળસાને અગ્નિ પ્રજવલિત કરે છે, અને વિચાર કરે છે, કે આ અગ્નિ ઠરી જાય એ પહેલાં જ આ લાખને તપાવી લઈશ. એ જ ઉપમાથી મુનિનો આહાર ઉપમિત કરવામાં આવ્યો છે. નિગ્રંથ, શ્રમણ છ સ્થાનથી આહાર કરતાં મુનિધર્મનું અતિક્રમણ કરતા નથી, તે કારણે છે-વેદના, વૈયાવૃત્ય વગેરે. __ मुनि आहार ग्रहण करता है। उसका लक्ष्य शरीर पोषण का न रह कर शरीर निर्वाह का रहता है। जैसे लाक्षाकार इंधन को प्रज्वलित करता है और सोचता है कि यह इंधन न त्रुझ जाय उसके पहले मैं अपना कार्य सम्पन कर लू । इसी प्रकार साधक भी यह सोचता है कि जब तक यह शरीर है मुझे अपनी आत्मसाधना कर लेनी है। टीका:-अपरं च यथा नामैको जतुकारकोऽमगारेष्वाकाय निःमजेदेष मेऽग्निकायो न विक्षापयिष्यति नतुं । तापयिष्यामीति चिसयौतयोपमयेत्यादि पूर्ववत् । मन्यच गतार्थम् । से जथा णामते उसुकारए तुसेहिं अगणिकाय णिसिरेजा एस मे अगणिकाए णो विज्झातिस्सति उसुं च तास्सामि एचमेवोवमाए समणे निग्गंथे० सेधे तेथेव । अर्थ:-जैसे कि एक इक्षुकार तुस के द्वारा अग्नि प्रज्वलित करता है और सोचता है कि यह आग बुझ न जाए तब तक इचरस को गर्म करूया। इसी प्रकार श्रमण निन्य आहार का सेवन करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે એક ઈસુકાર અનાજનું ભૂરું મૂકી અમને પ્રજવલિત કરે છે અને વિચાર કરે છે કે આ આગ હરી ન જાય તે પહેલા ક્ષ-રસને ગરમ કરીશ, એ જ પ્રમાણે શ્રમણ નિઐથ આહારનું સેવન કરે છે,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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