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इसि भासियाई
ण पाणे अतिपासेजा, अलियादिष्णं च वज्जव ॥ पण मेहुणं च सेवेजा, भवेया अपरिग्गहे ॥ ४॥
अर्थ :- साधक प्राणातिपात का सेवन न करे। असल और स्वेय का वर्जन करे। मैथुन का सेवन न करे। और अपरिग्रही बने ।
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गुजराती भाषान्तर:
મુનિ પ્રાણાતિપાત (હિંસા ) ન કરે, અસત્ય તથા ચોરીને છોડ, મૈથુનનો ત્યાગ કરે અને અપરિગ્રહી બને. प्रस्तुत गाथा में साधक जीवन में पांच महाव्रतों का निरूपण किया है। यद्यपि पुष्पशालपुत्र ऋषि भगवान नेमनाथ की परम्परा के हैं, किन्तु यहाँ पंच महावतों का पृथक् पृथक् निरूपण करते हैं।
कोह- माण-परिष्णस्ल, आता जाणाति पज्जवे ॥ कुणिमं च ण सेवेज्जा, समाधिमभिदं
॥ ५ ॥
अर्थ :- क्रोध यान का परिज्ञाता आत्मा पर्यायों का भी परिज्ञाता है। समाधि का इच्छुक साधक मांस का मी सेवन न करे ।
गुजराती भाषान्तरः
ક્રોધ તથા માનને જીતનાર આત્માના પર્યાયોને પણ જાણે છે. સમાધિને ચાહનાર સાધક માંસનું પણ સેવન ન કરે. आगम में दो प्रकार की परिज्ञा बताई है-- ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरेक्षा । ज्ञपरिज्ञा से साधक वस्तु के स्वरूप को जानता है और प्रत्याख्यानपरा से आश्रय का करता है।
एवं से मुखे विरए पावाओ० ॥
अर्थ :- इस प्रकार प्रबुद्ध आत्मा पाप से विरक्त होता है। गुजराती भाषान्तर:
આ પ્રમાણે પ્રભુદ્ધ આત્મા પાપથી મુક્ત થાય છે.
इति पंचमं पुप्फसालपुत णामायणं ॥ इस प्रकार पुष्पशालपुत्रनामक पंचम अध्ययन समाप्त ॥