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षष्ठ अध्ययन वागलचीरी -अज्झयण
तमेव उवरते मातंग, स काय भेदाति ॥ आयति तमुदाहरे, देवदाणचाणुमतं ॥ १ ॥
अर्थ :- देह मेद न होने पर भी गजेन्द्र की श्रद्धा रखने वाला अशुभ वृत्तियों से उपरत रहकर देव और दानव से अभिमत सिद्धान्त बोलते हैं ।
गुजराती भाषान्तर:
જેમ હાથી યુદ્ધમાં જાય અને ભષ્ટિથી પાછો ન કરે તેવી રીતે સાધકને મરણાન્તિક ઉપસર્ગ આવે તો પણ અશુભ વૃત્તિઓથી અલગ રહેવા જોઈએ એવું દેવ અને દાનવોને પણ માન્ય સિદ્ધાન્ત (અદ્વૈત) બોલે છે.
मायतिः उत्तरकालः अमरकोष ।
युद्ध में गया हुआ गजेन्द्र शत्रुदल के ग्रद्दारों को सह कर भी आगे ही बढ़ता है। उसी की सुदृढ़ श्रद्धा से साधक की श्रद्धा को तोलते हुए ऋषि चोलते हैं । देव दानव और मानव समस्त सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र में भी साधक को युद्ध रत हस्ति की उपमा दी गई है:--- पुढो समस, समरेव महासुणी ॥ नागो संगमसीसेवा, सुरो अभिद्दणे परं ॥
मध्य० २-१०.
प्रस्तुत अध्ययन की पहली गाथा काफी गूढ़ है । अर्थ अस्पष्ट है। टीकाकार एवं प्रोफेसर, शुटिंग इसके सम्बन्ध में भिन्न मत रखते । दोनों की व्याख्याएँ नीचे दी जा रही हैं। सत्य का तथ्य पाठकों की विवेक बुद्धि पर छोड़ता हूँ टीका :- मातंग इति ललितविस्तर मंत्र तृतीय परिवर्तानुसारेण कस्यचिद् प्रत्येकबुद्धस्य नाम अस्य स्वर्षेर्बुक्षेत्रं रिचतस्तेजो, धातु च समापयोश्चैव परिनिर्वाणस्येदाध्ययनस्य गधे व पये चानुलेखितध्वान्मातंगो गज एषेति अपरिहार्यो प्याख्या । ललित बिस्तर ग्रंथ के तीसरे परिचर्त के अनुसार मातंग यह किसी प्रत्येक बुद्ध का नाम है। किन्तु यह ऋषि बुद्धक्षेत्र का है और तेज धारण के लिये चमकती बीजली की भांति वर्णन आता है। किन्तु परिनिर्वाण के इस अध्ययन में उल्लिखित मातंग का अर्थ इस्ति ही है। इस व्याख्या को मानकर ही दर्जे चलना होगा ।
टीका: जो मरणार्थं गहनं वनं यातीति प्रसिद्धं । मातंगत आचरन् श्राद्धो मार्तगश्राद्धः । गजो यथा तमसि गहन उपरतो मृतस्तथा श्राद्धोऽपि कायभेदाय मरणायैकाकी एवं प्रायोपगमं गच्छति । आयति भविष्यत् काले तं देवदानवानुमतं प्रशस्थमति उदाहरे उदाहरिष्यति जनः ।
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हाथी मृत्यु के लिये गहन वन में प्रवेश करता है यह प्रसिद्ध हैं । मातंग ( हस्ति ) की भांति आचरण करने वाला श्रद्धावान ( साधक) मातंगश्राद्ध कहलाता है। जैसे हस्ति अंधकार पूर्ण गहन वन में प्रवेश करके मरता है ऐसे ही साधक शरीर त्याग के लिये अकेला पादपोपगमन ( संथारा ) करता है।
आयतिशब्द भविष्यकाल के अर्थ में आया है। देव और दानव सभी के लिये प्रशस्त हो ऐसा (सिद्धान्त ) मैं कहूंगा ।
प्रोफेसर शुम् " मातंगश्राद्धे " के सम्बन्ध में भिन्न मत रखते हैं: - "इधर उधर भटकते हाथी की भांति सामान्य मानव अपने लिये जीता है। अंधेरी शादियों में हाथी मर जाता है उसका कोई साक्षी नहीं रहता; इसी प्रकार सामान्य मानव मर जाता है उस ओर भी कोई देखता नहीं है, उसकी कोई कहानी कहने वाला नहीं मिलता। ऐसा मानव कभी कमी मृत्यु के लिये महत् वन में पहुँचता है, ऐसे मानव को यहां ( प्रस्तुत अध्ययन में ) देव और दानव के बीच लिया । प्रस्तुत पाठ में कसी हुई शब्द रचना है ।
गया
सेमं खलु भो लोकं सणरामरं वसीकतमेव मण्णामि ॥
तमहं बेमि विरथं वागलचीरिणा अरहता इसिणा बुझतं ॥ २ ॥