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________________ इसि-भासियाई अर्थ:-देव दानव और मानवों की यह सम्पूर्ण सृष्टि जिसके आधीन है वह मैं विरत वस्कलचीरि अतिर्षि इस प्रकार बोलता हूँ। गुजराती भाषान्तर: જેણે દેવ દાનવ અને માનવની સંપૂર્ણ સૃષિ વશમાં કરી છે તે હું વલ્કલચીરી નામનો સંસારથી વિરત અદ્વૈતર્ષિ આમ બોલું છું. टीका:-तेनायं खलु भो लोकः सनरामरो वशीकृत एवेति मन्ये तमहं विरतं विरजस्कं बेति प्रषीमि। हे आत्माओं ! उसी ने देव और मानव की सृष्टि वश में की है ऐसा मैं मानता हूँ वह में विरत अथवा (कर्म) रजरहित ( वरुकलचीरी) इस प्रकार बोलता हूँ। ण णारीगणपसत्ते अप्पणो य अबंधवे ॥ परिसा जत्तो विवाह तसो विजुधिरे जणे ॥३॥ अर्थ:-हे पुरुष । तूं श्रीकृन्द की संसक्ति (आसक्ति) से दूर रह और अपना अबंधु ( दुश्मन) भी न बन क्यों कि नारी-प्रसक्त (आसक्त ) व्यक्ति अपने आपका शत्रु होता है। अतः जितना भी संभव है युद्ध करो और विजयी बनो । गुजराती भाषान्तर: હે પુરુષ – નારીજાતિની આસક્તિથી દૂર રહે અને પોતાને જ દુશમન પણ ના બન. કેમકે નારીમાં આસક્ત, થએલો આત્મા પોતાને દુશ્મન બને છે. માટે જેટલું બને તેટલું (વિકારો સાથે યુદ્ધ કરો અને વિજય મેળવો. जिस आरंभ से आत्मा नरक के द्वार पहुँचता है, उससे दूर रहो। स्त्रीवर्ग में संसक्त और युद्धविरत व्यक्ति नरक की राह लेते हैं । वे दोनों पापशील आत्माएँ कर्म विपाक को प्राप्त करेंगी। जीवन भी एक युद्ध स्थल है। साधक को दो मोर्चे पर लवना होगा । एक नारी पर आसक्ति और दूसरा परिवार पर ममत्व । यह अन्तर का संघर्ष है । साधक ! तुम्हें इस मोर्चे पर डट जाना है। पूरी शक्ति के साथ रहो, विजय तुम्हारे हाथ है। इसके दो पाठान्तर है "ण नारीगणपसेते" दूसरा "ण नारीगणपसंवतु" दोनों पाठ प्रायः श्री-संसर्ग से बचने का आशय रखते हैं। टीका:-हे पुरुष! नारीगणप्रसको मा भूः भात्मनश्चान्धवः हे पुरुषाः यस्मात् मारंभाद् बजथ नरकमिति शेषः, तसाद युशीलो जनोऽपि जति, स्त्रीगृदो हिंसकश्चोभीपापकारिणौ कर्मफलं लपस्येते इति भावः। हे पुरुष | नारीकन्द पर आसर्फ मत हो, साथ ही अपना शत्रु भी मत हो । हे पुरुष! जिस आरंभ (पाप) से नरक के द्वार पर आत्मा पहुँचता है उस युद्ध की भयानक वृत्ति से भी तुम दूर रहो। स्त्रियों में आसक्त और हिंसक ये दोनों पापकारी भात्माएँ कर्मफल को प्राप्त करते हैं। मिरकुसे व मातंगे छिपणरस्सी हए वि वा ॥ णाणपग्गहपभद्दे विविध पवते णरे ॥४॥ अर्थ:-निरंकुश हस्ति और लगामविहीन अश्व नानाविध रस्सियों को तोड़ देता है। इसी प्रकार ज्ञानरूम प्रग्रह से भ्रष्ट मनुष्य भी अनेक रूप में दौड़ता है और विनाश को प्राप्त होता है। गुजराती भाषान्तर: જેમ નિરંકુશ હાથી અને લગામ વગરનો ઘોડો રસ્સીઓને તોડી દિયે છે, તેમ જ્ઞાનરૂપ રસ્સી (માદા) થી ભ્રષ્ટ થયેલો માણસ પણ આમ તેમ દોડે છે અને વિનાશને પામે છે. . टीका:-निरंकुश इव मातंगः च्छिश्चरश्मिर योऽपि भ्रामयति एवं ज्ञानप्रभ्रष्टः विविधं प्लवते, विनाशं गच्छति नरः । अर्थ उपरवत् है। मर्यादा-भंग करने वाले मानव का जीवन अंकुशविहीन हस्ति और बेलगाम घोड़े की भांति खतरनाक होता है। वह ऋषि और सन्तों के प्रतों की मर्यादा के बंधनों को तोड़कर आत्म-पतन करता है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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