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बाइसवां अध्ययन
यदि नारी के हृदय में वासना है और वह असदाचार की ओर कदम रखती है तो वह सर्पको लिपटती हुई मालती है। चह असंस्कारी और अशिक्षित है तो वह उसी प्रकार भयंकर होगी जिस प्रकार स्वर्ण की गुफा में भीषण गर्जना फरता हुआ सिंह।
उच्छायणं कुलाणं तु, दवहीणाण लाधवो। पतिट्टा सम्वदुक्खाणं, णेिढाणं अज्जियाण य ॥५॥ गेहं वेसण गंभीर, बिग्धो सद्धम्मचारिणं ।
दुवासो अखलीणं व, लोके सूता किमंगणा ॥ ६॥ अर्थ:-असंस्कारी नारी कुल का नाश करती है, उसकी प्रतिष्ठा समाप्त करती है और दीन दुर्बलों का अनादर करती है। वह सब प्रकार के दुःखों की प्रतिष्ठा रूप है। अर्थात् समस्त दुःखों की जद्ध है। वह आर्यत्व को भी समाप्त कर देती है। वह गंभीर से की घर है । स्त्री सद्धर्मचारियों के लिए विघ्नभूत है। गुजराती भाषान्तर --
સંસ્કારહીન નારી કુલનો નાશ કરે છે, તેની પ્રતિષ્ઠાને નાશ કરે છે અને દીન-દુબળાઓને અનાદર કરે છે. તે બધા પ્રકારના દુઃખોની પ્રતિકારૂપ છે. અર્થાત્ સમસ્ત દુખોનું મૂળ છે, તે આર્યત્વને પણ નષ્ટ કરે છે. તે ગંભીર વિરોનું ઘર છે. સંસ્કારરહિત સ્ત્રી સદ્ધર્મનું આચરણ કરનારાઓ માટે વિન્ન સમાન છે.
दुष्ट खभाव की नारी का यहां पर चित्रण दिया है। जिस नारी के स्वभाव में स्वाथै, कठोरता और दुराचार है तो बहू समाज और देश दोनों को ही नष्ट कर देती है । सुन्दर स्वभाव को नारी-कुल की रजत बढ़ाती है । वहा कुत्सित्त स्वभाव की नारी कुल की प्रतिष्ठा को समाप्त कर देता है। चेटक और कोशिक की महायुद्ध की ज्वाला में चिनगारी का काम करने वाली कौणिक की रानी पद्मा थी। उसी के स्वार्थी हृदय ने दोनों कुलों को युद्ध की माला में ढकेला था।
स्वार्थिनी नारी पैसे को सम्मान देती है। अपने पारिवारिक जनों को भी वह पैसे के ही गज से नापती है। जो पैसेदार होता है उसका अधिक सम्मान करती है। उसका निकटतम पारिवारिक जन उसके आंगन में आया हो, पर यदि दुर्भाग्य से उसके पास संपत्ति नहीं है तो वह उसको आदर नहीं देगी। उसके खागत में भी भेदभाव करेगी। जिस नारी का स्वभाव क्षुद्र है उसके घर की शान्ति को वह नष्ट करेगी । सुन्दर स्वभाव की नारी घर को स्वर्ग बना देती है । मुंदर श्री खमाव की नारी स्वर्ग को मी नरक का रूप दे देती है। वह घर की आर्यता और पवित्रता को नष्ट कर देती है। कमी कमी वह परिवार के ही श्रीज गंभीर वैर की खाई खोद देती है। धर्मरत आत्माओं की शांति में वह विघ्नभूत भी बनती है। जब उसके हृदय में प्रतिहिंसा की भावना जागृत हो जाती है तो वह दुष्ट अव की भाति बलवती हो कर बदला लेने पर उतारू हो जाती है।
पर यदि नारी अपने स्वभाव की सहज कोमलता और करुगा लिए रहती है तो वह देवी बनती।। इसीलिए आगम में स्त्री के लिए 'देवी' शब्द भी आया है । स्वभाव की दुर्जेनत नारी में ही हो पुरुष में न हो ऐसी बात नहीं है। पुरुष तो कमी नारी से भी अधिक क्रूर बन सकता है, और इसी लिए सातवीं नरक के द्वार को खटखटाता है। किन्तु यहाँ नारी का ही खभाव का वर्णन चल रहा है, इसलिए उसी के बुरे स्वभाव का चित्रण दिया गया है।
टीका:-कुलानां तूस्सादनं, द्रव्यहीनानां लाघवमनाइरः सर्वदुःखाणां प्रतिष्ठा निहा निधनं चार्यिकाणां वैराणां मंभीरं गुप्तं ग्रहं सद्धर्मचारिणां विघ्नो दुष्टाश्वो मुक्तखलिनः एवंधुता लोके किर्मगना कुस्त्री, लाओ अखलीगं बलवं ति पंचमघष्ठश्लोकयोः पदेष लिंगविपर्ययः। गताः ।।५-६॥ विशेषतः पांचवे और छ? श्लोकों में लिंग विपर्यय है।
इस्थिउ बलवं अत्थ, गामे सु णगरेसु था। अणस्सवस्सं हेसं तं अप्पव्वेसुय मुंडणं ॥७॥ घित्तेसिं गामणगराणं सिलोगो॥८॥