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दीवायण अर्हता प्रोक्त
चालीसवाँ अध्ययन मानव का मन एक विरार सागर है। जहां प्रतिक्षण सैकड़ों लहरें उठती और विलीन होती हैं। उनकी रंगिनियों में मानव मन लुमा जाता है। मनुष्य अपने मन में सौ सौ सत् संकल्प करता है किन्तु इच्छाओं की लहरें उन्हें महा ले जाती हैं। मानन विवश हो उन्हें देखता हो रह जाता है। वह सोचता है इच्छा की पूर्ति के बाद में संतुष्ट हो जाऊंगा किन्तु याद रखना होना हर इच्छा की पूर्ति अतृप्ति का नया द्वार खोलती है । एक इंग्लिस विबारक ने ठीक कहा है-The thirst of desire is never filled uor fully satisfied, इच्छाओं की प्यास कगी नहीं बुझती, न पूर्ण रूप से संतुष्ट ही होती है ।-सिसरो.
इच्छाओं के संकेत पर चलनेवाले मानव की स्थिति वैसी है जैसी सागर की लहरों की गति के अनुरूप चलनेवाले नाविक की। पश्चिम के प्रसिद्ध विचारक शेक्सपियर ने कहा है यदि इच्छा ही धोडा बन जाती तो प्रत्येक मनुष्य वुड सवार होता। पर आज तो घोडा आदमी पर सवार है, फिर उसे चैन कैसे मिले ? इच्छाओं पर ब्रेक लगाने की कला सीखामा प्रस्तुत अध्ययन का विषय है। हरुकमणिन्छ पुरा करेजा दीवायणेण अरहता इसिणा बुातं
इच्छा बहुबिधा लोए जाए यो किलिस्सति ।
तम्हा इच्छमणिच्छाए जिणित्ता मुहमेधती ॥१॥ अर्थ-दीवायन अतिर्षि बोले-(साधक) पहले इच्छा को अनिच्छा के रूप में बदले। लोक में अनेक प्रकार की इच्छाएं हैं। जिनमे बद्ध होकर आत्मा संक्लेश पाता है। साधक इच्छा को अनिच्छा से जीतकर सुरत्र पाता है। गुजराती भाषाम्तर:
દીવાયન અહર્ષિ કહે છે કે પ્રથમ ઈચ્છાને અનિચ્છામાં બદલી નાખો, આ દુનિયામાં અનેક તરહની ઇચ્છાઓ છે જેને કારણે જીવ કા થઇને દુઃખ પામે છે. જે સાધક અનિચ્છાદ્વારા ઈછાને જીતી જાય તો સુખ पाभी श.
मानव के मन पर शासन करती है । इसछाओं से शासित ध्यक्ति अपनी सभी आजादी को खो बैठता है। यद्यपि महार से वह स्वतंत्र दिखाई देता है फिर भी गहराई में उतर कर देखें तो ज्ञात होगा, वह आशा और इच्छाओं के धागों से बना है। वे धागे जितने सूक्ष्म हैं उतने मजबूत है।
एक संस्कृत के कवि ने सुन्दर चुटकी लेते हुए कहा है-श्राशा नामक एक विचित्र शृंखला है जिससे बद्ध प्राणी दौड़ता है और उससे मुक्त पशुवत् स्थिर रहता है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है—Desire is burriing fire, he who falls into it nover rises again.
इच्छा जलती हुई आग है। उसमें गिरा हुआ कमी उठता नहीं है । -'जेम्स ऑफ इस्लाम"-चम्पतराय
टीका:-पुरा अधिरादेव प्रवजितः सन् साधुरिच्छो यदि वा पुरा प्रवज्यायाः पुरस्ता दिग्छशभिलाषवान निकछी कुर्यादास्मसंतोषमंगीकुर्यात् । इच्छा बहुविधा भवति लोके यथा बद्धः विनश्यति, तस्मादिच्छामानिन्छया जिस्वा सुखमेधते ।
पुरा अर्थात् शीघ्र दीक्षित हुआ मुनि इच्छा को अनिच्छा से जीने अथवा पुरा अर्थात चरित्र ग्रहण के पूर्व साधक के मन में जो अभिलाषाएं थी उन्हें समाप्त कर दे और आत्म-संतोष को प्राप्त करे। शेषार्थ ऊपरवत है ।
इच्छामिभूया न जापति मातरं पितरं गुरूं।
अधिपिखवंति साधू य रायाणो देवयाणि य ॥२॥ अर्थ-इच्छाभिभूत व्यक्ति न माता को जानते हैं न पिता को, और गुरु को ही वे साधु राजा और देवता को तिरस्कृत कर सकते हैं।
१भाशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशेखला । यया बद्धाः प्रधावन्सि मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुबत् ।।