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उम चालीसवाँ अध्ययन
रहस्ये खलु भो पाप कर्म समयं द्रम्यतः क्षेत्रतः कालतः भाकः कर्मलेऽध्यवसायतः सम्यग् अपरिकुंचमानोऽनि
गृहमालोचयेत् ।
चतुर्थी श्लोक का पूर्वार्ध अपूर्ण है और उत्तरार्ध कर्म संचय विषयक है। जिसके परिणाम में साधु पुनः जन्म लेता है। शेष का अर्थ ऊपरवत् है ।
संजवणं अरहता इसिणा बुहतं
ण वि अत्थि रसेहिं भइ एहिं संवासेण य भहरण य । जत्थ मिप काणणोसिते उद्यणामेति बहाए संजय ॥ ५ ॥
अर्थः- :- संजय अर्हतर्षि बोले- मुझे सुन्दर रसों से और सुन्दर निवास स्थानों से कोई प्रयोजन नहीं संजय वन में रहे हुए मृग को मारता है।
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। जहां कि
गुजराती भाषान्तर :
સંજય અદ્વૈતર્ષિ કહેમને મધુર રસ અને સુંદર મોજીલા મંઝિલોમાં રસ નથી, જ્યાં સંજય વનમાં વસતા મૃગોને મારે છે.
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हिंसा के द्वारा भी थोड़ी देर के लिये मनुष्य भौतिक सुख के प्रसाधन प्राप्त कर सकता है किन्तु उनके द्वारा सभी शान्ति नहीं पा सकता। अपने छोटे जीवन के लिये वह प्राणियों का हिंसा करता है। इस जीभ के लिए हजारों प्राणियों का खून बहता है। सुन्दर निवास प्राप्त करने के लिये भी वह हिंसा करता है, किन्तु ने हिंसा जन्य प्रसाधन उसे चैन से रहने नहीं देते। उसकी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है। फिर आध्यात्मिक शान्ति तो उसके बहुत दूर है।
संजय अर्द्धतर्षि कह रहे हैं मुझे उन सुन्दर सरस पदार्थों और सुन्दर निवास स्थानों से कोई प्रयोजन नहीं है, जहां कि संजय काननवासी मृगों को मारने के लिये लाता है ।
यह संजय कौन है ?, पइके संजय, दूरा।
शिकार करनेवाला संजय हैं। दोनों एक ही हैं या मिन ? | ऐसा लगता है दोनों एक ही होने चाहिये। अतर्षि अपने पूर्व जीवन की स्मृति कर रहे हैं। उन मधुर आस्खादनों के लिये और सुन्दर भवनों के लिये मेरे मनमें अब कोई रस नहीं रह गया है, जिनके लिये मैंने मृगों की हिंसा की थी। उन्हें अपने हिंसात्मक कृत्यों के लिये मार्मिक वेदना हो रही है।
यह मृग वध के लिये जानेवाला संजय उत्तराध्ययन सूत्र के कम्पिल नरेश संजय से मिलता है। वह भी मृगया के शौकिन है। वन में एक मृग को बाणों से वीं देता है। किन्तु जब आहत मृग मुनि गर्गभात्रि के निकट जाकर गिरता है। उधर अश्वारूढ राजा भी वहाँ आता है और सोचता है मैंने आसक होकर ऋषि के मृग का वध कर दिया है। ध्यानस्थ मुनि जग उसे स्वागत नहीं देते हैं तब राजा और भयभीत हो जाता है और उसने क्षमा प्रार्थना करता है, तत्र मुनि कहते तुम अभय हो और स्वयं अभयदाता बनो। उसके अहिंसा और अनिलता भरे उपदेश से वह भी राज्य को छोड़कर प्रवजित हो जाता 1
दोनों संजय ऋषि एक हैं या भिन्न यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु दोनों में साम्य अवश्य है ।
१. देखिये उत्तराध्ययन सूत्र अ० १८ गाथा १-१८.
टीकाः - भवन व संवासेन लौकिक जीवितेन नास्ति मे कार्यः कीटशेन संवासेन १ यत्र संजयः काननबासिनो मृगान् वधायोपनामयति = व्यापादयति इति संजयीयमध्ययनम् । गतार्थः ।
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से सिद्धे बु० । इति संजय अर्हता प्रोत एकोनचत्वारिंशदध्ययनम् ।