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________________ वरिसवकृष्ण अर्हतर्षि प्रोक अष्टादश अध्ययन म्वच्छंदी मानव पाप की और कदम बढाता है। विवेक-घटता ही पाप का पहला कदम है। पाप की कल्पना प्रारम्भ * गो - को हो , जो लगे तो बहुत ही सुन्दर लमही, किन्तु अन्त में अफीम की ही तरह कटु होती है। पर काम सुझाना है। प-मणिधर मानव को मृत्यु के गोद में भी शान्ति से नहीं सोने देते हैं। पश्चिमी विचारक चॉल्टर स्कॉट वोलते हैं कि: When we think of dentli, a thousandsins, which we huve trolden as worms beneath our foct, rise up against usus fanning Serponts. “जब हम गृत्यु का स्मरण करते हैं तो हजारों पाप जिन्हें हम कीड़े-मकोड़े की तरह पैरों के नीचे मसल चुके हैं, हमारे विरुद्ध फणिधर राप की मांति खड़े होते हैं। पाप का डंक बिच्छू से अधिक तीखा और सर्प से भी अधिक घातक होता है।" प्रस्तुत अध्ययन में पाप से पीछे हटने की प्रेरणा है। सिद्धि । अयते खलु भो जीवो वज्ज़ समादियति से कहमेतं ? । पाणातिवाएणं जाव परिग्गहेणं अरति-जाघ मिच्छा दंसणसल्लेणं वजे समाइत्ता हत्थच्छेयणाई, पायच्छेयणाई जाव अणुपरियटृति णवमुद्देसगमेणं | प्रश्न:-जो आत्मा पाप का सेवन करता है वह संसार में परिभ्रमण करता है, वह कैसे ? उत्तर:-प्राणातिपात, यावत् परिग्रह और अरति माका मिथ्या-दर्शन-शल्य के द्वारा आत्मा पाप का उपार्जन करता है। पश्चात् उसके प्रतिफल में हस्तछेदन पादछेदनादि नवम उद्देशकवत् असीम दुःखों का अनुभव करता हुआ परिभ्रमण करता है। गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન:-જે આત્માએ પાપ કર્યું હોય તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે તે કેવી રીતે ? જવાબ:-પ્રાણાતિપાત હિંસાથી લઈને પરિગ્રહ અને અરતિથી લઈને મિયા દર્શન સુધીના શયથી આત્મા પાપનું સંપાદન કરે છે; પાછળથી તેનું ફળ મળે છે, હસ્તનું છેદન, પગનું છેદન વગેરે અસહ્ય દુઃખો તેને અનુભવ કરતો તે સંસારમાં ફર્યા કરે છે, प्याज खाकर इलाइची की डकार लेने की बात मिथ्या हैं। इसी प्रकार पाप करके सुख की कल्पना करना भी मिथ्या ही है। As you sow, so you rean 'जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे'। पाप परिणति का अशुभ विषाकोदय प्रस्तुत अध्ययन में बतलाया गया है। प्राणातिपात आदि राभी पाप हैं। अज्ञान के द्वारा मानव बहुत पाप अर्जित कर लेता है । यत्नाविवेक ममृत है तो अयत्ना अविवेक विष है जो कि साधक की साधना को दूषित कर देता है। टीका:-अयते त्यक्तयनः खलु भो जीवः पुरुषो वने हिंसां समादाति । कथमेतत् ? प्राणातिपातादिना रत्यरतिभ्यां मायाया मिथ्यादर्शनशल्येन वनं समादाय इस्तच्छेदनादीनि प्रत्यनुभवमानाः संसार-सागरमनुपरिवर्तन्ते जीवा यथोक्तं नवमाध्ययने । गतार्थम् ।। टीकाकार 'वज' का अर्थ वन करते हैं और वज्र से हिंसा का अभिप्राय निकालते हैं। जो कि उचित नहीं जान पड़ता है। वज्र इन्द्र का एक विशेष आयुध है । इसका दूसरा अर्थ है वन जैसी कठोर खील । -अर्द्धमागधीकोष पृ. ३२४ जे खलु भो जीवे णो वजं समादियति से कहमेत? । वरिसवकण्हेण अरहता इसिणा धुइतं । पाणपतिवातरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लबेरमणं सोइदियणिग्गहेणं णो वजं समजिणित्ता हत्थच्छेयणाई, पायच्छेयणाई जाव दोमणस्साई वीतिवतित्ता सिवमचल-जाव चिटुंति। . प्रश्न:-जो आत्मा पाप का उपार्जन नहीं करता है उसका जीवन कैसा होता है? उत्तर:-वरिसव कृष्ण अतिर्षि बोले-पाप से उपरत आत्मा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशस्य से विरक्ति श्रोत्रेन्द्रिय विषय के निग्रह के द्वारा पाप का वर्जन करके हम्तच्छेदन पादच्छेदन यावत् दुर्मनता आदि दुःखसमूह को व्यतिक्रान्त करके शिव अचल रूप आत्म-स्थिति को प्राप्त करता है। १'बज' का दूसरा अर्थ है अवद्य पाप, अर्द्धमागधी कोष मा.४.पृ०३२५वज का यही अर्थ यहाँ पर अभिप्रेत है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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