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________________ li १३२ इसि - भासियाई मानव की अच्छाई और बुराई उसके शुभ और अशुभ आचरण पर ही निर्भर रहती है। किन्तु स्थूल दृष्टा केवल बाहरी वस्त्रों को अच्छाई और बुराई नापने का मज बना लेता है। श्रेष्ठ वारियों को पवित्र आत्मा मानने को तैयार हो जाता है । किन्तु ऐसा मानने वाला यह क्यों भूल जाता है कि बुराई भी अच्छाई के वस्त्रों को पहन कर दूसरे को धोखा दे सकती है । और कभी अच्छाई भी बाहरी दुनियां से तिरस्कृत होकर बुराई के गंदे वस्त्र पहन सकती है, तो क्या गंदे वस्त्रों में लिपटी हुई अच्छाई से प्रेम नहीं करेंगे ? अथवा कोषकार 'छत्थ' का एक दूसरा ही अर्थ देते हैं " हां तो सफेद कपड़ों के नीचे कभी काळे दिल के रहते हैं। बस हो अच्छाई और बुराई नापने चलने वाला अभी जीवन की राहों में आंखें गूद कर चल रहा है। अनुभव की ठोकर उसकी पलकों को खोल भी सकती है। भिन" ( पाइअ सहमाओ ) इस अर्थ को मान्य करने पर गाथा का अर्थ दूसरा होगा । आत्मा शुभाशुभ जो भी कार्य करता है उसीसे वह अच्छा या बुरा बनता है । मनुष्य विविध रूपता युक्त है। समस्त मानव सृष्टि को हमें इसी प्रकार स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मानव की श्रेष्ठता और अता शुभाशुभ कार्यों पर निर्भर है। कंती जे वयोवस्था, जुज्जंते जेण कम्मुणा । गिव्वती तारिसे तीसे, वाया व पडिका ॥ १८ ॥ अर्थ : :- जिस वय और अवस्था में जिस कर्म से कान्ति प्राप्त होती है उसकी वैसी ही रचना हो सकती है और वाणी से ऐसा ही सुना जाता है । गुजराती भाषान्तर: જે ઉમર અને હાલતમાં જે કર્મની ક્રાન્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. તેની તેવી જ રચના થઇ શકે છે. અને વાીિથી તેવું જ સાંભળવામાં આવે છે. मनुष्य के जीवन में एक अवस्था ऐसी भी आती है जिसमें गर्म खून कुछ नया सर्जन करता है । वह पुरानी निष्प्राण परम्पराओं को तोड़ कर नई दृष्टि प्राप्त करना चाहता है। उसका नया जोश सृष्टि में नया परिवर्तन लाने के लिए अकुलाता है। समाज में नया आदर्श स्थापित न करके उसको नवा मोड देना ही नये खून का काम है । वृद्धावस्था में होश तो रहता है, किन्तु नया कुछ काम करने के लिए जोश नहीं रहता है। कोरा होरा यदि कुछ नहीं कर सकता है तो कोरा जोश भी कुछ नहीं कर सकता। कोई नया काम करने के लिए होश और जोश दोनों चाहिए । साथ ही वाणी में बल भी चाहिए कि वह अपने विचारों को दूसरों के हृदय में बैठा सके। यदि विचारों के अन्दर क्रान्ति नहीं है तो आचार कान्ति कभी संभव नहीं है। कान्तिका प्रादुर्भाव सर्वप्रथम विचारों में होता । जिनके विचारों की दुनिया सोलहवीं सदी में रहती हो. जिन्हें नया कुछ भी करने में हो और जो अपने दिमाग पर नये विचारों के लिये 'प्रवेश नहीं' का बोर्ड लगाए घूमते रहते हैं उनके पास विचार कान्ति के बीज ही नहीं है। वे नए युग की नई चेतना को समझ नहीं सकते हैं। पर भूलना नहीं होगा जिसने युग की आवाज को ठुकराया है युग उनका साथ कभी नहीं दे सकता । युग भी उसी के सामने सिर झुकाता हैं जो दुनिया के अपमानों का विष पी कर भी अमृत बरसाते हैं । टीका :- या कान्तियोऽवस्था वा येन कर्मणा युज्यते तादृशी तस्या निर्वृतिर्भवति वाचः प्रतिश्रुदिव । गतार्थः । ता हूं कडोदयुग्भूया, नाणा गोर्यविकपिया । गोदावर्त्तते, संसारे सध्वदेहिणं ॥ १९ ॥ अर्थ : नानाविध गोत्रों के विकल्प आत्मा के कार्यों से बनते हैं। संसार के समस्त देहधारी भन्नियों से उनमें रहते हैं । गुजराती भाषान्तर : નાનાવિધ ગોત્રોના વિકલ્પ આત્માના કાર્યાંથી થાય છે. સંસારના સમસ્ત મનુષ્ય વિકલ્પથી તેમાં રહે છે. उच्च और नीच गोत्र की सृष्टि आत्मा ही करता है। उसके शुभ और अशुभ आचार और विचार उच्च और नीच गोत्र के हेतु है । गोत्र कर्म के संबन्ध में जैन संसार पर वैदिक दर्शन की छाया है, इसी लिए वैदिक दर्शन की जन्मजात उच्चता और नीचता को उसने स्वीकार कर लिया है। उसके आधार के लिए गोत्र कर्म को आगे कर दिया जाता है। किन्तु जैन १. 'गाय',
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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