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चौबीसवां अध्ययन
१३३ दर्शन ने हमेशा जन्मज पवित्रता का निषेध किया है। उसका विश्वास क्रम में है । अतः मानव की श्रेष्ठता का उसने जन्म से नहीं कर्म से स्वीकार की है। यदि जन्म से ही किसी व्यक्ति में पवित्रता आ जाती है तो कर्म की फिलासफी ही समाप्त हो जाती है । साथ ही जीवन की साधना के लिए सारी बातें व्यर्थ होंगी।
'गोय' का पाठान्तर गाय मिलता है, यदि हम गाय को अनुलक्षित करेंगे तो गाथार्थ ही भिन्न होगा। कान्ति और वय के द्वारा ही आत्मा शरीर की सृष्टि करता है और विकल्प से रहता है। अतः संसार में यह अनिखता सर्वव्यापी है।
दीका:-ताई तासां इह संबन्धे तु ताभ्यां कान्तिनयोभ्यां कृतोनोदयोद्भूता नानागानविकल्पिता अनेकगानेषु कृता भग्योदयाः संसारे सर्वदेहिनामनुपरिवर्तन्ते ताभ्यामनित्यत्वात् ।
टीकाकार गान राठ को अनुलक्षित करके गाथा का अर्थ प्रस्तुत करते हैं । ताह यहाँ कान्ति और उस से सम्बन्ध रखता है । वय और कान्ति के द्वारा जो कुछ भी कर्म करता है, उसके अनुरूप ही शरीर का निर्माण करता है। शुभ अध्यवसायों से वह शुभ देह प्राप्त करता है और अशुभ से अशुभ देह । किन्तु इतना निश्चित है कि वह दोनों में एक साथ नहीं रह सकता।
कंदमूला जहा वल्ली, वल्लीमूला जहा फलं ।
मोहमूलं तहा कम्म, कम्ममूला अणिधया ।। २०॥ अर्थ:-कन्द से लता पैदा होती है और लता से जिस प्रकार से फल पैदा होते हैं इसी प्रकार मोहमूल से कर्म आते हैं और कम से अनित्यता। गुजराती भाषान्तर:---
કન્ટથી વેલ ઉત્પન્ન થાય છે અને લતાથી જે પ્રકારે ફલ ઉત્પન્ન થાય છે, તે જ પ્રકારે કર્મ મોહથી ઉત્પન્ન થાય છે અને અનિયતા કર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે.
कन्द से लता और लता से फल पैदा होता है इसी प्रकार मोह से कम पैदा होता है और ये कर्म ही अनित्यता को जन्म देते हैं।
बुझंते बुज्झए चेब, हेउज्जुत्तं सुभासुभ।
कंदसंदाण-संबद्धं, पल्लीणं व फला-फलं ॥२१॥ अर्थ :--बोध देने पर साधक शुभ और अशुभ का विवेक करने का बोध प्राप्त करे। जिस प्रकार से स्ता के फल और अफल (बुरे फल) कन्द की परम्परा से संबद्ध है, अर्थात् जैसा कन्द होगा वैसी ही लता होगी और वैसे ही अच्छे या बुरे उसके फल भी होंगे। गुजराती भाषान्तर:
બોધ આપ્યા પછી સાધકે શુભ અને અશુભનો વિવેક કરવાનો બોધ પ્રાપ્ત કરવું. જે પ્રકારથી લતાનું ફળ અને અફળ કદની પરંપરાથી સંબંધ છે અર્થાત્ જે કંદ એવી જ લતા હશે અને એવા જ સારા અથવા ખરાબ તેના ફળ પણ હશે.
तत्त्यदशी उपदेश करते हैं। माधक शुभ और अशुभ में परित्याग का विवेक प्राप्त करे। साधक अशुभ का परित्याग करे और शुभ की ओर आए । इतना ही नहीं शुद्ध को प्राप्त कर के शुभ को भी छोड दे। लता के अच्छे या बुरे फल कन्द की अच्छाई या बुराई पर निर्भर करते हैं।
___टीका:-अथ कर्मोच्यते बुध्यते चैव फर्महेतुयुक्त शुभाशुभं यथा वल्लीनां फलाफले पर्याप्तफलान्यपर्याप्तफलानि च बुध्यन्ते ।
आत्मा कर्म का बन्ध कसा करता यह जानना है तो उसका मूल हेतु जानना होगा। यदि उसका मूल सुद्ध मध्यवसाय है तो क्रर्म भी शुम ही होगा। और यदि हेतु ही अशुभ है तो कर्म अशुभ होगा ही। यदि कर्म को हम फल कहें तो हम अध्यवसाय को हम बीज कह सकते हैं। कर्म का हेतु ही अशुभ नींव पर खडा है । ऐसी अवस्था में कर्म कमी शुभ नहीं