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________________ पैतीसवां अध्ययन २२३ यों तो दूसरों के पाप पुण्य की जिम्मेदारी हम पर नहीं है तो उसकी आलोचना करने का अधिकार भी नहीं है। विचारक टेल कारनेगी कहते है - Criticisur is futile because it puls u mun on the defensive and usually makes him strive to justify himself critcism is dungerous because it wound a man's precious pride hurts his sense of importance and are uses his sentiment. - डेल कारनेगी. ___ आलोचना व्यर्थ होती है क्योंकि इससे दोषी प्रायः अपने को निर्देष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। आलोचना भयावह भी है। क्योंकि वह मनुष्य के बहुमूल्य गर्व पर ध्यान करती है । जसकी महत्ता के भाव को पीड़ा पहुंचाती है और उसके क्रोध को भड़काती है। __अतः विवेकशील साधन आलोचना से बचें; आलोचना वृक्ष की शाखा से फूल और किड़े दोनों को पृथक् कर देती है। कभी कभी आलोचना के द्वारा हम अपने मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देते हैं। भातहो णिजरायंतो परटो कम्मबंधणं । अत्ता समाहिकरणं अपणो य परस्स य ॥ १६॥ अर्थ :-आस्मार्थ ( स्व की ओर दृष्टि) निर्जरा का हेतु है और परार्थ ( दूसरे की ओर दृष्टि ) कर्मबन्धन का हेतु है आत्मा ही ख और पर के लिये समाधि का करनेवाला है। गुजराती भाषान्तरः આત્માર્થ એટલે સ્વાર્થનો વિચાર નિર્જરાનું કારણ બને છે, અને પાચ એટલે બીજાને માટે વિચાર કર્મબંધનનું કારણ બને છે. આત્મા જ “સ્વ” અને પર' માટે સમાધિ કરનાર છે. ख की आलोचना विकाश का लेत है तो पर की आलोचना आत्मा को विनाश के पथ पर ले जाती है। विश्व की प्रत्येक वस्तु गुण और दोषों से रहित नहीं हैं । जैसी किरकाप चलेंगे, वैसी तत्प सा दोष ष्टि लेकर चले तो सर्वत्र दोष दिखाई देंगे । गुलाब की डाल पर तीखे-शूल भी है तो महकते फूल भी । कांटे की दृष्टि लेकर चलेंगे तो काटों में उलझ जाएंगे पर फूल की मधुर सुवास नहीं पा सकेंतो। हमारी दोषदृष्टी दूसरों के दोष हमारे पास लाती है। स्वामी रामतीर्थ ने एक बार कहा था जब तक तुममें दूसरों के दोष देखने की दृष्टि मौजूद है तब तक तुम्हारे लिये ईश्वर का साक्षात्कार करना कठिन है । एक इंग्लिश विचारक भी यही कहता है The fower faults we possess ourselves the less interest we have in pointinj out the fulls of other people. अपने मन के दोष कम होने पर ही हमारे छिद्रान्वेषण की प्रवृति कम हो सकती है। अर्थात् हम दूसरों पर दोषारोपण तभी करते है जब स्वयं हमारी ही मनोवृत्ति दृषित होती है। इसीलिये अर्हतर्षि पर की आलोचना से परे हटने की प्रेरणा दे रहे हैं। हम अपनी आलोचना करके आत्मिक शान्ति पा सकते हैं और पर की आलोचना कर्म बन्ध करते हैं । क्योंकि आत्मा स्व और पर के बीच समाधिकारक है। अपणातपम्मि अट्टालकम्मि कि जग्गिएण चीरस्स। णियगम्मि जन्गियब्वं इमो हु बहुचोरतो गामो ॥ १७ ॥ अर्थ:-अज्ञात अइटालिका में वीर के जागने से क्या होगा। स्वयं को जागना होगा। क्योंकि यह प्राम चोरों का है। गुजराती भाषान्तर: અજાણ્યા કિલ્લામાં સેનિક જાગતો રહે તે શું થાય? પોતાને જ ઉજાગર થશે. કેમ કે આ ગામ તે ચોરીનો જ છે.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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