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________________ २२४ इसि-भासिया अज्ञात कोट में घिर जाने पर हमें स्वयं को जागृत रहना चाहिये। एक वीर जग रहा है उसके विश्वास पर सब छोड़ा नहीं जा सकता। हमें स्वयं को जगना चाहिये, क्योंकि यह तो चोरों की नगरी है । जैनदर्शन का स्वर है हजार युग की सुषुप्ति की अपेक्षा जागृति का एक पल श्रेष्ठ है। किन्तु वह जागृति की आत्मा जागृति हो । भगवान् महावीर की आत्मा जागृत है, किन्तु उनकी जागृति हमारे घर को नहीं बचा सकती। जम तक आत्मा की जाति नहीं होती सम्यग्दर्शन की ज्योति प्राप्त नहीं करता तब तक कथाय और वासना के तस्करों से दुनिया की कोई ताकत हमें बचा नहीं सकती। जग्गाहि मा सुधाहि माते धम्मचरणे पमत्तस्स । का हिंति यहुं चोरा संजमजोगे हिडाकम्मं ॥ १८ ॥ अर्थ :--जामत बनो, या, धर्माभन पत्त होने का गरे नंगम योग में बहुत से चोर लूट न करें। गुजराती भाषान्तर: જાગૃત રહો, બેદરકાર રહો નહીં, ધર્મના આચરણમાં બેદરકાર રહેવાથી સંયમ યોગમાં ઘણા ખરા શેરો (પાંચ ઈદ્રિયો) લૂંટફાટ કરી શકે નહી એની કાળજી રાખો. साधक (धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमाद न करो) आत्मिक जागृति के क्षेत्र में प्रमाद के चोर को प्रवेश न पाने दो क्योंकि आत्मिक साधना के लिये प्रमाद बहुत बम लुटेरा है। एक विचारक ने कहा है 'आलस्य जीवित मनुष्य की कम है। प्रमाद जीवन का जंग है। जंग लोहे को साजाता है ऐसा ही प्रमाद जीवन को नष्ट करता है'। एक विचारक ने कहा है Idleness is only thi: refuge of weak minds and holiduy of fools. आलस्य दुर्बल मनवालों का एक मात्र शरण हैं, और गूों का अवकाश दिवस है। -चेस्टर फील्ड टीका:-जागृहि मा स्वपिहि मा धर्माचरणे प्रमासस्य तव चोरा पंचेम्ब्यिादयः कषायान्ताः संयमयोगयोदुंगतिगमने वा यह कर्म कार्पः । हीत्ति कर्मविशेषणं स्वज्ञातार्थम् । अर्थात् - जागो, सोओ नहीं; धर्म कार्यों में प्रमत्त होने पर तुम्हारी पंचेन्निया और कवाय तक के चोर संयम और योग का अपहरण करते हैं और दुर्गति गमन के लिये बहुत कर्म करोगे । हीड यह कर्म का विशेषण है, उसका अर्थ अज्ञात है। पंचेंदियाइ सण्णा दंडे सल्लाइ गारवा तिषिण । बाबीसं च परीसहा चोरा घत्तारि य कसाया ॥ १९ ॥ अर्थ:-यांच इन्द्रियाँ, संज्ञा, दंड, शल्य, तीनों गर्व, बावीस परीषह और चारों कषाय समी चोर हैं। गुजराती भाषान्तर: पांय दियो, (मार विगैरे) पांय संज्ञाओ, ( मन विगैरे) , शल्य (भाया, निदान भिध्यादर्शन) (ઋદ્ધિ, રસ અને સુખનો ગર્વ તેમજ બાવીસ પરીષહ અને ક્રોધાદિ ચાર કષાય આ બધા ચોર છે. पूर्वगाथा में साधक को आत्मनिधि के अपहर्ताओं से सावधान रहने की प्रेरणा दी गई थी। प्रस्तुत गाथा में उन्हीं आत्मतस्करों का उल्लेख किया गया है । पाँचों इन्ट्रिया आहारादि बार संज्ञाएं, मनादि तीन दंड, माया, निदान और मियादर्शन के शल्य, बुद्धि रस और सुख के गर्य, बाईस परिषह और क्रोधादि चार कषाय ये हैं आत्मनिधि के प्रमुख तस्कर । जरा सी असावधानी चोरों को रास्ता दे देती है। विभाग दशा ही आत्मा को पतन की ओर ले जानेवाली प्रमुख वृत्ति है, उसी के द्वारा आत्मा स्वभाव को छोड़कर पुतलों में आसक होता है । इंद्रियादि का निरूपण क्रमबद्ध रूप से श्रमण सूत्र में आता है। जहां पर कि एक से तेहतीस तक की संख्या के पद दिये गये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के चरण विधि नामक इकतीसवें कमबद्ध आता है। १ माहुते. २हिंकाकम्म.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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