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बाइसवां अध्ययन जीवन में ऐसे भी प्रसंग आते हैं जब कि संदेहास्पद वस्तु का उपयोग भी अनिवार्य हो जाता है। किन्तु उसके सेवन के समय बड़ी सतर्कता की आवश्यकता रहती है। सबसे पहले उस वस्तु को जानना होगा और साथही उसका परिणाम भी जानना आवश्यक होगा । यदि यह न जाना तो वह वस्तु विधात भी कर सकती है।
जब आवश्यकता देखता है तो वैद्य रोगी को सोमल भी देता है। किन्तु उसके परिणाम का परिज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है। यदि परिणाम का ज्ञान है तो विष भी अमृत होगा और यदि परिणाम नहीं जाना तो अमृत भी चिप का काम कर देता है । अतः उसके उपभोक्ता को सावधानी के साथ उसका उपयोग करना चाहिए।
टीका:-शंकनीयं च यद्वस्तु यशाप्रतीकारं तत् सुष्टु त्यक जानीयात् यो युज्यमानानि युज्यमानानां वस्तूना अनुयोजयिता भवति । गतार्थः ॥१०॥
जस्थस्थि जे समारंभा, जेवा जे साणुबंधिणो।
ते वत्थु सुट्ट जाणेजा, णेय सम्वविणिच्छप ॥ ११ ॥ अर्थ:--जहां पर जो समारेभ और जो सानुबंध है उस वस्तु को ठीक ठीक जाने वही परिज्ञान सभी पदार्थों के निश्चय में सहायक हो सकता है। गुजराती भाषान्तर:
માં જે સમારંભ (એટલે હિંસારૂપી કોશીશ) અને સાનુબન્ધ (અનુસરણ કર્તા) છે તે વસ્તુને જે ઠીક ઠીક પ્રમાણમાં જાણે તેનું જ પૂર્ણ જ્ઞાન બધા પદાર્થના નિયમાં મદદગાર થઈ શકે છે.
जो समारंभ और अनुबन्धक कारण है सम्यग-दर्शन-सेपन्न आत्मा उस समारंभ और अनुबन्ध का यथार्थ ज्ञान करे। श्रावक समारंभ करता नहीं है, किन्तु उसे करना पड़ता है। किन्तु कटु औषधि की भांति उसका सेवन करता है। जो कि उचित प्रमाण में होने से उसके लिए प्रगाढ बंध का हेतु नहीं होता है। श्रावक को जब आरम्भ के पथ से गुजरना पड़ता है तब वह महारंभ से न जाकर अल्पारम्भ का मार्ग चुनता है । वह महापथ से न जाकर गोपच नुनता है।
टीका:-यत्र ये समारंभा ये वैतेषां सानुबन्धा भवन्ति । तानि पनि सुक्षु जानीयात् । नैतत् सर्वविनिश्चये नैसनिवाहिते अनादस्य निश्चयनीयम् ॥ ११ ॥
जहां ये आरम्भ हैं और जहां उसके सानुबन्ध होते हैं। साधक उन समस्त वस्तुओं को ठीक ठीक जाने । जिसे वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वह सैचर के स्थान पर आधः उपार्जित करेगा । किसी भी प्रकार को निश्चय करने के पूर्व साधक अपनी बिबेक दृष्टि खुली रखे। जब उसकी बुद्धि पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं है और उसकी बुद्धि का खार्थ और ममत्व ने घेर रखा है तब किसी भी प्रकार का निश्चय किया जाएगा वह दूषित निश्चय होगा।
जेसि जहिं सुपपत्ती, जेवा जे साणगामिणो ।
विणासी अविणासी चा, जाणेज्जा कालवेयवी ॥१२॥ अर्थ:-जिसके लिए जहां पर मुखोत्पत्ति है और जो जिसके अनुगामी है, कालविद् उसके विनाशी और अविनाशी रूप को अवश्य ही देखें। गुजराती भाषान्तर:
જેને માટે જ્યાં સુખની ઉત્પત્તિ થાય છે, અને જે જેના અનુગામી છે કાલવિદે તેના વિનાશી અને અમર રૂપને અવશ્ય જોવું જોઈએ.
मानव के मन में सुख के लिए बहुत बड़ी प्यास है। अनन्त युग से ही वह सुख का अनुगानी है। कुछ वस्तुओं में वह सुख की उत्पत्ति देखता है और उस वस्तु का अनगामी हो जाता है। विचारक देखेगा कि वह वस्तुज स्थिरत्व लेकर आया है। पदार्थों में सुख की एक क्षणिक किरण आती है और उस सुख के पीछे विशाल दुःस की परम्पर। खड़ी रहती है । सुख कुछ मिनटों के लिए आया किन्तु कितना विकराल है उसका क्षणिक रूप ।। अतः समयज्ञ शाश्वत मुख का शोधक बने ।
टीका:-यत्र येषां समारंभाणां सुखोरपतिर्भवति, ये बँतेषां सानुगामिनोऽनुगमसहिता चिनाशिनो वा विपरीत वा भवन्ति तान् जानीयात् कालवेदविदः । देतीह लौकिकं ज्ञान ॥ १२ ॥