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________________ १२० इसि-भालियाई अर्थ:-जहां जिन समारंभों अर्थात् हिंसात्मक प्रयत्रों द्वारा सुख खोजा जाता है और जो उसके अनुगमनकर्ता होते हैं ये विनाश के पथिक है। अथवा चे विपथ-गामी है । समयज्ञ तथा वेदज्ञ ऐसा जाने। यहां पर वेद से लौकिक ज्ञान अभिप्रेत है। गुजराती भाषान्तर: જ્યાં જે સમારંભો અર્થાત્ હિંસાત્મક કાળા દ્વારા સુખ દીધવામાં કરે અને જે ન અનુગામનકર્તા હે છે, તે વિનાશના માર્ગના મુસાફીર છે. અથવા તે વિપથગામી છે. સર્ફ તથા વેદ એવું જાણવું અહીંયા વેદથી લૌકિક જ્ઞાન અભિપ્રેત છે. सीसच्छेदे धुवो मच्चु, मूलच्छेदे हतो दुमो। मूल फलं च सव्यं च, जाणेजा सब्ववत्थुसु ॥ १३ ॥ अर्थ:--शीस के छेदन से मृत्यु निश्चित है । नूल के छेदन से वृक्ष का विनाश निक्षित है। इसी प्रकार सभी वस्तुओं में विचारक मूल और उसके फल का विचार करे। गुजराती भाषान्तर : માથું કાપી નાખવાથી મૃત્યુ નિશ્ચિત છે, જડ-મૂળથી જ ઝાડ કાપી નાખવાથી તેને વિનાશ નિશ્ચિત છે. તે જ પ્રમાણે બધી વસ્તુઓમાં બુદ્ધિમાન મનુષ્ય મૂળ અને તેના ફળને વિચાર કરવો જોઈએ. किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैं। एक उसकी जड़ और दूसरी उसकी शाखा। यदि किसी वस्तु को नष्ट करना है तो उसकी शाखा प्रशाखाओं नहीं बल्कि उसके मूल पर प्रहार करना होगा । यदि किसी वस्तु का विकास करना है तो भी उसके मूल का ही अभिसिंचन करना होगा। यदि दुःख को नष्ट करना है तो उसके लिए उसके निमित्त पर नहीं, उसके उपादान पर प्रहार करना होगा । दुःख की जड अशुभ भाव कर्म को ही रामाम करना चाहिए। सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहाशाणं विधीयते ॥ १४ ॥ अर्थ:---जो स्थान शरीर में मस्तक का है और वृक्ष के लिए मूल का है, वही स्थान समस्त मुनि धर्मों के लिए ध्यान का है। गुजराती भावान्तरः - દેહમાં માથાનું જેટલું મહત્ત્વ છે અને વૃક્ષને મૂળનું મહત્ત્વ છે, તેટલું જ સ્થાન સમસ્ત મુનિ-ધમને માટે ધ્યાનનું છે. शरीर में मस्तक का स्थान सर्वोच्च है और वृक्ष के लिए उसकी जड़े महत्व रखती है। साधना में वही स्थान ध्यान का है। चित्तवृत्तियों का निरोध ध्यान है। योगशास्त्र इसी ध्यान की धुरी पर केन्द्रित है। उमास्वाति भी तत्वार्थसूत्र में ध्यान की परिभाषा देते है उसमसंहननस्सैकाप्रचिन्ता निरोधो ध्यानम् ।-तत्त्वार्थ सूत्र अ० ९ सू० २७ । मन की बिखरी हुई किरणें जब किसी एक तत्त्व पर केन्द्रित हो जाती है तो उसकी शक्ति में प्रखरता आ जाती है। जब यह मन की संग्रहित शक्ति शुभ की तरफ अग्रसर होती है तभी वह आत्म-साधना का द्वार खोलती है। शुभ अभ्यवसाय ही अमण साधना का मूल है। टीका:-नवमश्लोकादारभ्य परिसादिकम्मेयादृषिभाषितं पुष्करपत्रोपमान्तमनुबध्यतेति व्यक्तं 1 गभालाध्ययनम् । गर्दभालीयेत्यपरनामकम् । नवम श्लोक से लेकर परिषाडि क्रम्म पर्यन्त प्रषि भाषित है । यह पुष्कर पर्यन्त अनुबच्य है जो कि व्यक्त है। इस प्रकार दगभालाध्ययन जिसका अपर नाम गर्दभालीय भी है समाप्त हुभा । एवं से सिद्धे युद्धे० । गतार्थम् । ऋषिभाषितेषु वगभाली-गर्दभीयं द्वाविंशत्यध्ययनम् ।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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