SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिये की जानेवाली साधना का अपने स्पष्ट शब्दों में विरोध किया है। अतः पुण्य के मीठे सुफल के लिये आफूल न हो। क्योंकि . शूल तोबांधता है और गति को रोकना है किन्तु फूल की पकड़ उससे ज्यादा होती है। शूल तन को बिंधता है जबकि फूल मन को बिंध देता है। लक्ष्य का राही साधक शूल से बचता है तो वह फूल से भी बचता है। दोनों में नहीं उलझता । इसी प्रकार साधक पुण्य और पाप दोनों से बचे। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि पुण्य और पाप दोनों समान हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना लोहे और काठ कि नौका में । पहली तो डूबो देनेवाली है, जबकि दूसरी नौका धर्म के तट पर लाकर छोयुती है । तट पर पहुंचाना उसका काम है किन्तु तट पर पहुंचने के बाद उसे नौका छोड़ देना होगा। नीन परिणतियां हैं, एक अशुद्ध परिणति-दूसरी शुभ परिणति, तीसरी शुद्ध परिणति हैं। पहली गठर का पानी है। दूसरा रंग मिश्रित पानी है, तीसरा शुद्ध पानी है। पहलानो गन्दा है, तो दूसरा रंग मिश्रित है, अतः सदा पेय नहीं होता पर पेय तो शुद्ध पानी ही होता है। पाप अशुद्ध परिणति कप गन्दा पानी है । पुण्य शुभ है पर रंग मिश्रित ह जबकि आत्मा की शुद्ध स्वरूप में रमणता शुद्ध परिणति है। साधक कर्ता अर्थात आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचाने 1 अशुभ से शुभ में आये और शुभ से भी ऊपर उठकर देह धारणा की परम्परा के मूल का जन्टछेद करे। देहाध्यास समाप्त होगा तभी देह धारण समाप्त होगा। टीका-दिव्ये कर्तसाधमाने ब्रह्मणः प्रतिरूपे क्रियमाणे धीमता मुनिना कार्यकारणमनिवार्य निराकृत्य देहधारफ विनीतं प्रायोपगमादिनाऽपनीतम् । अर्थात, साधक कार्य कारण की परम्परा को रोककर प्रायोपगमनादिके द्वारा देहधारण को समान करे। सागरेणावणिज्जोको आतुरो वा तुरंगमे ॥ भोयणं भिज्जएहिं वा जाणेज्जा देहरफ्रखणं ॥ ५१ ॥ अर्थः -मागर में नाविक नाव का रक्षण करता है। (लक्ष्य प्राति के लिये) आतुर व्यक्ति घोहे की रक्षा करता है भिश्यक ( भूखा ) व्यक्ति भोजन की रक्षा करता है, से ही साधक देह की रक्षा करता है। गुजराती भाषान्तर:--- દયમાં નાવિક (પલાસ) નાવનું રક્ષણ કરે છે તે પોતાનું કથ પૂર્ણ કરવા) વ્યાકુલ માણસ ઘોડાનું રક્ષણ કરે છે; બિદ્યક (ભૂખા માણસ) ભોજનનું રક્ષપ્ત કરે છે, તે જ પ્રમાણે સાધક શરીરનું રક્ષણ કરે છે, साधक देह की आसक्ति नहीं रखना किन्तु देह तो रखता ही है। देह को वह साधन के रूप में स्वीकार करता है। नाविक सागर की लहरों में नौका से प्यार करता है, क्योंकि वह जानता है कि नौका के द्वारा ही उसकी जीवन नैया तैर रही है। पर तट पर पहुंचने के बाद वह स्वयं नौका को छोड़ देता है। इसी प्रकार अपने लक्ष्य परपहुंचने केलिये आतुर व्यक्ति घोडे पर आरूढ़ होता है पर लक्ष्य पर पहुंचने के बाद वह स्वयं घोडे से उतर जाता है। बुभुक्षित व्यक्ति आवश्यकता होने पर भोजन करता है और क्षुधापूर्ति होने बाद स्वयं उससे मुंह मोड लेता है। इसी प्रकार साधक देह की रक्षा करता है पर उसका उद्देश्य देह रक्षण नहीं अपितु आत्म-रक्षा है, जानक देह के द्वारा देही को पोषण मिलता है तब तक बह शरीर की रक्षा करता है जब ३६ लक्ष्य पर पहुंच जाता है तो देह, छोड़ देता है। भगवान महावीर मी उत्तराभ्ययन सूत्र में फरमाते हैं: साधक: कारणों से भोजन लेता है। शुधा की शान्ति, रलाधिकों की सेवा, इयो समिति, संयम मात्रा का निर्वाह प्राणरक्षा और धर्म चिन्सन के साधक भोजन ग्रहण करता है।' टीका:-यथा सागरेणावनेर्योगः भातुरो रोगी पुरुषस् तुरंग मारूढः तृप्तकै जर्म, एवं निरर्थकमनदेयं वा देहरक्षण जानीयात् । गतार्थः।। जातं जातं तु धीरियं सम्म सुज्जेज्ज संजमे । पुप्फादीहि पुष्फाण रक्खेतो आदिकारणं ॥ ५४॥ अर्थ:-साधक अपने भीतर प्रकट होने वाली शक्ति का संयम में सम्यक प्रकार से उपयोग करे । पुष्यों का उपयोग करनेवाला पुष्प के भादिकारण बीज की रक्षा करता है । गुजराती भाषांतर: સાધકે પોતાની અંદર પ્રકટ થનારી શક્તિને સંયમમાં સારી રીતે ઉપયોગ કરવો જોઈએ. કુલ વાપરનારા માણસે કુવનું જે જન્મનું કારણ બીજ તેનું રક્ષણ કરવું ઘટે છે. शक्ति प्राप्त करने के लिए सब मचल रहे हैं और शक्ति ही जीवन है, स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिकागो के भाषण में कहा था Strength is life and weakness is death. शक्ति ही जीवन है और कमजोरी ही मौत है। इसीलिये शक्ति प्राप्ति की होड़ लग रही है। विश्व की बड़ी शक्तियां राष्ट्र की शक्ति वृद्धि के करोखों अरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। राकेट और उपग्रहों का निर्माण शक्ति प्रदर्शन के लिये ही तो है। १वेयण यावच्च परिचय संजनाए । सह पाणवत्तियार छद पुण धम्मचित्ताए ॥ उत्तराध्ययन अ. २६ गा. ३३
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy