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________________ ८६ इसि-भासियाई जैन दर्शन कर्तत्व और भोक्तृत्व दोनों प्रकार की शक्तियां आत्मा में खीकार करता है। दूसरा कोई आत्मा को बांध नहीं सकता । तो विश्व की कोई भी शक्ति आत्मा को मुक भी नहीं कर सकती है। अब आत्मा की सोई हुई चेतना जाग्रत होगी और अपनी शक्ति का उसे परिज्ञान होगा तो एक क्षण में संजीरों को तोडकर मुक्त हो जाएगा। संते जम्मे पसूर्यति वाहि-सोग-जरादओ। नासंते डहते वही तरुच्छेता ण छिदति ॥ १८॥ अर्थ:-जन्म के सदभाव में व्याधि, मोम और वार्थक्य भादि भिमदा होती है। जम्मा का अभाव होने पर समस्त उपाधियाँ समान हो जाती है। यदि आग में जलने योग्य वस्तु का अभाव है तो आम जलाएगी किसे ? । अथवा यदि आग का अभाव है तो वह जलाएगी भी नहीं और यदि वृक्ष काटने वाले का अभाव है तो अकेली कुल्हाडी वृक्ष को नहीं काट सकती। गुजराती भाषान्तरः-- જન્મની હયાતીમાં વ્યાધિ, શોક અને ઘડપણ આદિ ઉપાધિઓ આવી પડે છે. જન્મ પ્રાપ્તિનો અભાવ થતાં સમસ્ત ઉપાધિઓ નષ્ટ થઈ જાય છે, જે આગમાં બળતણ ન જ હોય તો આગ બળશે કોને? અથવા જે ભાગને અભાવ હોય તે તે બાળશે પણ નહીં અને જો વૃથા કાપવાવાળો જ ન હોય એકલી કુહાડી વૃક્ષને કાપી શક્તી નથી. मानव जन्म तो चाहता है कि व्याधि और उपाधि हो नहीं, यह किन्तु असंभव है, क्योंकि जन्म स्वयं उपाधि है। यह तो वैसा ही हुआ, जैसे कोई आग तो चाहता है किन्तु उसकी उष्णता को नहीं चाहता है। उष्णता को समाम करने के लिए आग को ही समास करना होगा। यदि वृक्ष को कटने से बचाना है वृक्ष के काटने वाले को ही समाप्त-दूर करना होगा। फिर हजारों कुल्हाडियां क्यों न पड़ी हों, वृक्ष के एक अंश को भी नहीं काट सकती। यदि जन्म-जन्य व्याधियों से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा । आदमी मौत से डरता है और जन्म से प्यार करता है। किन्तु यदि मौत से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा। जहां जन्म है यहां मौत अवश्य है। आत्मा सराग वृत्ति से हट जाए, क्योंकि वीतराग दशा आने के बाद जन्म भी समाप्त हो जाता है और मौत पहले ही मर जाती है। दुक्खें जरा य मच्चू य, सोगो माणावमाणणा। जम्मघाते हता होती, पुष्फधाते अहा फलं ॥ १९ ॥ अर्थ:-दुःख जरा (बुढापा), शोक, मान और अपमान ये सब उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं जब जन्म समाप्त हो जाता है। जैसे पुष्प के नष्ट कर देने पर फल स्वतः नष्ट हो जाता है। गुजराती भाषान्तरः દુખ, ઘડપણ, શોક, માન અને અપમાન આ બધું તેજ ક્ષણે નાશ પામી જાય છે કે જ્યારે જન્મને જ છે આવી જાય છે. જેવી રીતે ફૂલને નાશ થતા ફળ આપોઆપ જ નાશ પામે છે. जन्म, मृत्यु, मानापमान सभी दुःख ही है। किन्तु ये जन्म के पैर से बंधे हुए हैं । जन्म के समाप्त होते ही सभी समाप्त हो जाएंगे। पत्थरेणाहतो कीयो, खिप्पं डसह पत्थरं । मिमारि ऊसरं एप्प, सरूपत्ति व मग्गति ॥ २० ॥ तहा बालो दुही वरथु, बाहिर र्णिदती भिसं । दुपचुप्पत्ति-विणासं तु सिगारि व्ध ण पप्पति ॥ २१ ।। अर्थ:-पत्थर से आहत कुसा पत्थर को ही काटने दौडता है 1 किन्तु जब सिंह को बाण लगता है तन वह बाण को छोड़ कर बाण के उत्पत्ति (छुटे हुए) एथल पर झपटता है। इसी प्रकार अज्ञान शील आत्मा कष्ट के आने पर बाहरी वस्तु पर आक्रोश करता है। किन्तु सिंह के सदृश दुःखोत्पत्ति के हेतु को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: પથરથી ઘવાયેલ કુતરો પથરને જ બટકું ભરવા દોડે છે. પરંતુ જ્યારે સિંહને બાણ લાગે છે ત્યારે તે બાણને છોડીને બાણ જ્યાંથી છુટયો હોય તેજ જગ્યા પર હુમલો કરે છે. તે જ પ્રમાણે અજ્ઞાનશીલ આત્મા કષ્ટ
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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