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पंचदश अध्ययन
८७ આવતાં બહારની વસ્તુઓને જ ઠપકો દે છે, પરંતુ સિંહની જેમ દુઃખની ઉત્પત્તિના અસલ કારણને નષ્ટ કરવા પ્રયત્ન तो नश्री.
विश्व के रामस्त पदार्थ कार्य कारण के रूप से विमान है । जब किसी कार्य को समाप्त करना है तो प्रजाशील विचारक उसके कारण को समाप्त करता है। कारण के समाप्त होने पर कार्य अपने आप ही समाप्त हो जाएगा। यदि विष फल नहीं चाहते है तो पहले उसके विषैले घुष को ही समाप्त कर देना होगा । फूल नष्ट होने पर फल नष्ट हो ही जाएगा। यदि पंखे को बंद करना है तो पहले बटन को दबाइए। पंखा खतः बंद हो जाएगा। किन्तु यदि सीधे पंखे को हाथ लगाया तो अंगुली ही कट जाएगी। अतः विचारक वगे कारण और कार्य की मुष्टि को बन्द करने के लिए पहले कारण को रोकता है। कुत्ते को कोई मारता है तो वह मारने वाले को नहीं पन्धर को ही काटता है। किन्तु शेर पर कोई बाण छोड़ता है तो वह वाण पर नहीं बाण चलाने वाले पर झपटता है । ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में इतना ही अंतर होता है । अज्ञानी आत्मा पर जब कभी दुःख आता है तब वह बाहरी निमित्चों को दुःख का मूल हेतु मान कर उस पर आक्रोश करता है, मूल पर उसकी दृष्टि आती ही नहीं है । जब कि विवेक शील आत्मा पत्तों पर नहीं मूल पर ही आपात करता है।
टीका:-पाषाणेनाहतः किवः पक्षिविशेषः क्षि पाषाण दशति मुगारि:-सिंह उपरं प्राप्य शरउत्पत्तिस्थानमेव मार्गति किवसिंही निरर्थकं कुरुत इति भावः ।
टीकार्थ:-पत्थर से आहत किव पक्षिविशेष शीघ्र पत्थर को काटता है जब कि सिंह बाण के उत्पति स्थान को खोजता है। किव सिंह निरर्थक करता है, यह भाव है।
टीकाकार का कहना है, कि किव पक्षिविशेष का नाम है। जबकि अन्य स्थान पर शिव अर्थात पण अथवा क्लिक अर्थात् कुत्ता प्रहण किया गया है। किव पक्षी को पत्थर मारने का विशेष संबन्ध नहीं आता है । क्योंकि पक्षी तो आइट पाते ही उड जाता है । श्वान वृत्ति प्रसिद्ध है वह पत्थर मारने वाले को नहीं पत्थर को ही काटता है।
टीका:-तथा नेनैव प्रकारेण वालो दु:खी दुःखपीडिनो बाहिरं वस्तु भृशं निन्दति, नतु दुःखोत्पत्तिविनाशी प्राप्नोति सिंह इचेति हे पदे मतिरिक्त । गतार्थः ।
चणं वहि कसाय. य अणं जं या यि दुट्टितं ।
आमगं च उब्यहता दुक्खं पावंति पीवरं ॥ २२ ॥ अर्थ:-त्रण अग्नि और कषाय तथा और भी जो दुष्ट कार्यों को करके बीमारियों को दोते हुए व्यक्ति महान् दुःख प्राप्त करते है। गुजराती भाषान्तरः
કણ, અગ્નિ અને કષાય તથા બીજા પણ દુષ્ટ કાર્યો કરીને બિમારીને વહોરી લેવાવાળી વ્યક્તિ મહાન દુઃખને પ્રાપ્ત કરે છે.
सुग्वेच्छु व्यक्ति भोग और वासना में ही आनन्द देखता है। किन्तु वे ही भोग रोग का निमंत्रण बन कर आते हैं। तब वह व्यक्ति शरीर से पुष्ट रह कर भी मनःशाकि और स्वास्थ्यशक्ति से क्षीण होकर दुःख और अशान्ति का अनुभव करता है।
टीका:-बण-अग्नि-कषामान फर्ण चामर्ग ति रोग । यद् वाप्य अन्यद् दुस्थितं तदुद्वदन्तोऽनुभवतः पीपरं महद् दुःखं प्राप्नुवन्ति मानुषाः ।
अर्थ:-व्रण, अग्नि, कषाय और रोग तथा अन्य दुःखों का अनुभव करते हुए मनुष्य महान दुःख को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तरः
વાણુ, અગ્નિ, કથાય અને રામને પ્રાપ્ત કરીને તથા અન્ય દુઃખોનો અનુભવ કરતા મનુષ્ય મહાન દુઃખને प्रास रे छे.
वही अणस्स कम्मरस, आमकस्स बणस्स य । णिस्सेस घायिण सेयो, छिण्णो यि रहती दुमो ॥ २३ ॥