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________________ २८४ इसि-भासियाई किसी प्राणिविशेष पर अनुकम्पा रखने की प्रेरणा नहीं देती। कोई व्यक्ति हमारी आति समाज या प्रान्त का है, इसलिये हम इसपर अनुकम्पा करें और दूसरा इसलिये हमारी करुणा का कण न पा सके कि वह हमारी जाति से बाहर का है। क्षुद्रता की ये दीवारें वीतराग-शासन में प्रवेश के लिये अवरोधक दीवारें बनकर खड़ी होती हैं। क्योंकि वहां तो अनंत अनंत प्राणियों के प्रति एक रूप में एक भाव से करुगा धारा बहाने का रमादेश है। बीतमोहस्स दंतस्स धीमंतस्स भासितं जए । जे णरा णाभिदेति ते धुर्व दुस्वभायिणो ॥२४॥ अर्थः-वीत मोह (वीतराम) दान्त प्रज्ञाशील की बात को जो मनुष्य स्वीकार नहीं करते, वे निश्चयतः दुख के भागी होते हैं। गुजराती भाषांतर: વીતરાગ એટલે સુખ, દુઃખ, મમત્વની આસક્તિથી રહિત, દમનશીલ અને બુદ્ધિમાન માણસની વાતોનો જે માણસ સ્વીકાર કરતા નથી તે માણસ ખરેખર દુઃખી બને છે. वीतराग देव की समस्त विधिनिषेधात्मक आज्ञाएँ साधक के लिये हितप्रद है। उन आज्ञाओं के पीछे वीतराग की कोई वैयक्तिक स्वार्थ आकांक्षाएँ नहीं हैं, क्योंकि वे स्वयं मोहातीत हैं, जहा मोह की प्रेरणा है वहीं पर स्वार्थ की सृष्टि है। साथ ही वेदान्त इन्द्रियजेता है, उन्होंने स्वयं पहले उन आज्ञाओं का अनुपालन किया है। उसके बाद ही साधक के लिये विधान किया है। वे अनेन प्रज्ञाशील हैं। केवलज्ञान के प्रकाश एज में उन्होंने साधक के लिये ज्ञान किरण दी है। उनके आदेश को कराकर हम उन्हें तो कष्ट नहीं दे सकते, क्योंकि वे तो चीतराग है; पर हो, उनके आदेशों की अवहेलना करके हम अपने आपको दुःस्त और बन्धनों की श्रृंखला में बांध देते हैं। जेमिणंदति भावे जिणाणं सेसि सव्वधा । कल्लाणाई सुहाई च रिधीओ यण वुल्लहा ॥ २५ ॥ अर्थः-जो जिनेश्वरों की आज्ञा का भाव पूर्व सर्वथा प्रकार से अभिनंदन करता है, उसके लिये कल्याण और सुख स्वयं प्राप्त है। ऋद्धियों मी उसके लिये दुर्लभ नहीं है। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ જિનેન્દ્રની આજ્ઞાને શ્રદ્ધાથી માનપૂર્વક અભિનંદન (સ્તુતિ) કરે છે, તેને મુખ અને કલ્યાણ કોશીશ ( કશું પણ) કર્યા વગર મળે છે. ઋદ્ધિ અને સિદ્ધિઓ પણ તેને દુર્લભ નથી. जो साधक वीतराग देव के आदेशों का यथोचित पालन करते है। उसके लिये वीतराग की वे कल्याणप्रद आज्ञाएं सुख की शाश्वत राह दिखाती हैं। आत्म शान्ति के साथ उसे अनेक लब्धिया भी प्राप्त हो जाय तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि आत्म-तुष्ट के लिये लब्धियाँ चेरी बनकर हाथ जोड़े दोड़ी आती हैं। टीका:-ये भाषेनाभिनंदन्ति जिनाज्ञा तेया कल्याणानि सुखान्यईयश्च सर्वथा दुर्लभा भवन्ति । मणं सधा रम्ममाणं गाणाभावगुणोदयं । फुल्ल व पउसिणीसंडं सुतित्थं गाजितं ॥ २६ ॥ रम्म म जिणिदाणं णाणाभावगुणोदयं । कस्सेयं ण पिपय होजा इच्छियं च रसायण ? ॥ २७ ॥ अर्थ-जैसे नानाविध भाव और गुणों के उदय से मन आनंद पाता है और जैसे अह (मगर) वर्जित सूतीर्थ विकसित पगिनियों के समूह से शोभित होता है, इसी प्रकार नानाविध भाव और गुण से उदित जिनेश्वरों का सिद्धान्त सुरम्य है । इच्छित रसायन की भांति जिनेश्वरी का यह दर्शन किसे प्रिय न होगा? गुजराती भाषांतर: જેમ અનેક તરહના ભાવ અને ગુણોના ઉદયથી ચિત્તમાં આનંદ થાય છે જેમકે ચાહ (મગર) ૨હિત શ્રેષ્ઠ તીર્થ વિકાસ પામેલા કમલોથી સુશોભિત બને છે; તેમ જ નાના તરાહના ભાવ અને ગુણોથી વિકાસ પામેલી નેશ્વરને સિદ્ધાન્ત અત્યંત રમ્ય છે. ઇચ્છેલા રસાયાની માફક જીનેશ્વરનું આ દર્શન કરીને પ્રિય ન થશે? १. माणं,
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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