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पैंतालीसवाँ अध्ययन
२८३ करुणा से अमिभूत साधक प्राणी दया के लिये सदैव सावधान रहे, क्योंकि कदम पर हिंसा का साम्राज्य है। हिंसा प्रसाधन जिनने भवानक बनते जाएंगे अहिंसा को उसका मुकाबला करने के लिये उतना ही सजग रहना होगा। उपग्रह के इस युग में अणुप्रमों का प्रतिकार अशुबन नहीं, अहिंसा ही कर सकती है। अहिंसक को पूरी सावधानी के साथ चलना होगा और पूरे जोश के साथ विश्व को संदेश देना है। Live fund let live जीओ और जीने दो। केवल ही नहीं देता है अहिंसा का अनुपालन करके प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता है । अहिंसा दे, सिद्धान्टनम में नहीं, व्यक्तियों में जीते हैं। सिद्धान्त चाहे जितने ऊंचे हों किन्तु उनकी श्रेष्ठता उसके पालनकर्ताओं से व्यक्त होती है। क्योंकि जनता सिद्धान्त नहीं जीवन देखती है और जीभ की अपेक्षा जीवन का स्वर ऊंचा होता है। अहिंसा के लिये साधक उतना ही सावधान रहे जितना कि तेल पूर्ण पात्र को ले जानेवाले ।
जैन कथा साहित्य में चक्रवर्ती भरत की कहानी आती है। जब अयोध्या के उपवन में भगवान आदिनाथ ने विशाल परिषद के समक्ष देशना दी कि महारंभी और महापरिग्रही मरकर नरक में जाता है। तब एक व्यक्ति ने प्रश्न किया "प्रभो। ये बकरती मरकर कहां जाएंगे। प्रभु ने उत्तर दिया "यह अल्पारंमी चक्रवती इसी भव में संपूर्ण कर्म क्षय कर निर्माण प्राप्त करेंगे।" प्रभु का उमर पाकर बेटते हुए व्यक्ति के मुंह से निकल गया "हाँ; पुत्र को मोक्ष न मिलेंगा?"
अस्फुट शब्द चक्रवर्ती के कानों से टकराये। उन्होंने सोचा इसे अभी भी प्रभु की बात पर विश्वास नहीं है। अगले दिन अनुचर को मेजकर प्रश्नकर्ता को बुलाया । अनुचर को देखते ही उसके सामने मौत का चित्र घूम गया। सोचा चक्रवता के सम्बन्ध में प्रश्न करके कितनी मूर्खता की । रोती हुई पत्नी मी बोल उठी "तुम् ही क्या पड़ी श्री प्रश्न करने की है।” का अनुचर ने उसे चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित किया । तो चक्रवर्ती ने तेल का पूरा भरा कटोरा हाथ में देकर कहा-"जाओ तुम अयोध्या में घूमो।" और रक्षकों को आदेश दिया कि "सावधान रहना, तेल एक बून्द गिरते ही तो तुम्हारी तलवार इसका सिर धड़ से अलग कर देगी।"
प्रश्नकर्ता ने सोचा मारना ही तो था और अभियोग भी ढूंढ लिया गया है। आज मौत शिर पर है। तेल कटोरा लेकर चला-तो कदम कदम पर मौत वात्र रही थी। पर पूरी सावधानी के साथ तेल ऋटोरा लिपे अयोध्या के बाजारों में घूमा । संध्या को जब सकुशल महलों में लोटा तो सोया अत्र खतरा टला। तेल कटोरा नीचे रखकर संतोष की सांस ली । तो चक्रवती ने पूछा "अब बताओ, अयोध्या के बाजारों में तुमने क्या देखा ?"
वह बोला "क्षमा करें, अयोध्या के सारे भाजार इस तेल कठोरे में थे। जब सिर पर मोत मंडरा रही हो तब बाजारों के रंग में क्या रस होगा।" चक्रवर्ती ने कहा "अब तुम्हें अपने प्रश्न का समाधान मिल गया होगा।" उसने पूछा "यह कैसा समाधान? मेरा तो प्राण सूख गये थे।" हंसते हुए चक्रवर्ती ने कहा "मैंने तुम्हें समाधान देने के लिये बुलाया था, मारने को नहीं । प्रभु वीतराग के जिन शब्दों के प्रति तुम्हें अविश्वास था उन्हें ही मुझे सिद्ध करना था। अयोध्या के राग रंग तुम्हें
क्योंकि मौत सिर पर झूम रही थी1। ठीक इसी प्रकार छः खंड का विशाल साम्राज्य भी मुझे लुभा नहीं सकता । भले ही मेरे चारों ओर भोग और विलास नृत्य कर रहा हो।"
तेलपान धारक की यह कहानी एक ओर अनासक्ति का संदेश देती है दूसरी ओर सावधानी और एकाग्रता का देती है । अर्हतर्षि हिंसा की साधना में उसी एकाग्रता की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। टीका:-सस्मात् माणिदयार्थमेकाग्रमना भूरवा दयार्थी मुनिरप्रमत्तो बिहरे यथा कश्चित्तलपात्रधरः । गतार्थः ।
आणं जिणिंदभणितं सव्यसतानुगामिणिं ।
समचित्ताभिणंदिता मुझंती सध्वबंधणा ॥ २३ ॥ अर्थ-साधक प्राणिमात्र का अनुगमन करनेवाली जिनेन्द्र कथित आज्ञा को रामचिन से स्वीकार कर सभी बन्धनों से मुक्त होता है। गुजराती भाषान्तर:
સાધક પ્રત્યેક પ્રાણિ ઉપર દયા કરનારી છને નિરૂપિત આજ્ઞાને એકચિત્ત બની અંગીકાર કરીને બંધનોથી મુક્ત બને છે.
वीतराम देव की वह आज्ञा जिसमें कि साधक को प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखने का आदेश दिया गया है। साधक उसका राम्य रूप से अभिनंदन करे और उसका अनुगमन कर सभी दुःखों से मुक्त हो सकता है। जिनेश्वर देव की आज्ञा