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________________ पंचदश अध्ययन आध्यात्मिक दृष्टि भी बताती है, कि अज्ञानाभिभूत आत्मा एक दुःख से मुक्त होने की चेष्टा करती है तभी वह शतशः दुःखों की नई परम्परा के द्वार खोल देता है । असाताबेदनीय से मुरू होने के लिए वह हिंसात्मक उपचार करता है फलतः कर्मों की नयी जंजीरों से पुनः आबद्ध हो जाता है। टीका:-दुःखितो दुःखवावार्थमन्य कंचिच्छीरिण पुरुष दुःखीकृत्वा वेदना प्रापयिस्वा एकस्य दुःखस्य प्रतिकारेणान्यव दुःख निबनातीति विरोधः । दुःखी व्यक्ति दुःख-नाश के लिए किसी अल्प शरीरधारी पुरुष को दुःख का दाता मान कर उसे वेदना देकर एक दुःख का प्रतिकार करना चाहता है, किन्तु उस के द्वारा दूसरे दुःख का बन्धन करता है, किन्तु यह विरोध है। दुषवं मूलं पुरा किचा, दुक्खमासज्ज सोयती । गहितम्मि अणे पुछि अदइत्ता ण मुबइ ॥९॥ अर्थ:-आत्मा दुःख के बीज को पहले मोता है, फिर दुःस्त्र को प्राप्त करने के बाद शोक करता है। पहले ऋण लिया है तो उसको लौटाए बिना वह मुक्त नहीं हो सकता है। गुजराती भाषान्तर: આત્મા દુઃખના બીજને પહેલાં વાવે છે અને પછી દુઃખ પ્રાપ્ત કરે છે અને શોક કરે છે. પહેલાંનું ત્રણ બાકી છે તે પછી તે ચૂકવ્યા પહેલાં મુક્ત થઈ શકતો નથી. मात्मा मन के खेत में हजारों बीज प्रति क्षया डाल रहा है। किन्तु वह भुलकई माली है जो बीज डाल कर फिर उस पर ध्यान नहीं देता है। किन्तु बीज डाला है तो वह अवश्य ही एक दीन विशाल वृक्ष बन कर तैयार होगा, विष वृक्ष के कटु फल जब उसके सामने आते है तम वह हाय हाय करता है, रोता और तडपता भी है। किन्तु एक बार ऋण लिया है तो उसको लौटाए बिना मुक्ति नहीं है। आहारत्थी जहा बालो, वही सप्पं च गेण्हती। तहा मूढो मुहत्थी तु, पावमपणं पकुव्वती ॥ १० ॥ अर्थ:- यदि बुभुक्षित बालक आग और सर्प को पकडता है तो वह संकट को ही निमन्त्रण देता है । इसी प्रकार सुख चाहने वाला अज्ञानी आत्मा नए पाप करता है। गुजराती भाषान्तरः-- જે ભૂખ્યો (અજ્ઞાની) બાળક જે આગ કે સપને સ્પર્શ કરે છે તે આફતને જ નોતરે છે. તેવી જ રીતે સુખ મેળવવા માટે કોશિશ કરનાર અજ્ઞાની આત્મા નવા પાપ કરે છે. • नन्हा जालक यदि अनार का दाना समझ कर अंगारों को खाना चाहे तो वह कष्ट ही पाएगा। चूहा पिटारे को देखता है और सोचता है इसमें अवश्य ही मोदक होंगे और वह अपने दांतों से पिटारे को कुतर कर उसमें प्रवे जाता तो है लस् खाने, परन्तु स्वयं साँप का भक्ष्य बन जाता है । इसी प्रकार अज्ञान के अन्धकार में भटकता हुआ आत्मा सुख मानकर जिसको अपनाता है वही उसके लिए कष्ट दायी बन जाता है और वह सुख की मृग-तृष्णा में दौड़ता हुआ अगणित पापों को एकत्रित कर लेता है जो कि दुःख के बीज होते हैं। पावं परस्स कुब्र्वतो हसती मोहमोहितो। मच्छो गलं मसंतो या विणियात ण परसती ॥ ११ ॥ अर्थ:-जब मोह-मोहित आत्मा दूसरे (की हानि) के लिए पाप करता है, उस समय आनन्द का अनुभव करता है। मछली आटे की गोली गले में उतारती हई भानन्द पाती है, किन्तु उसके पीछे छिपी हुई अपनी मौत को वह नहीं गुजराती भाषान्तर: જ્યારે મોહમુગ્ધ આત્મા બીજને (નુકસાન પહોંચાડવા માટે પાપ કરે છે તે સમયે તે તે આનંદ અનુભવે છે. જેમ માથ્વી પકડવાના આંકડા ઉપરના લોટની ગોળી ગળામાં ઉતારતા આનંદ પામે છે, પરંતુ તેની પાછળ પાએલી પોતાની મોતને તે છેતી નથી.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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