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इसि भासियाई
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गुजराती भाषान्तर :
અજ્ઞાનથી મોહિત સિંહ અને સાપ પક્ષની પકડ અને એકબીજાના દંશથી ખન્નેનો નાશ થયો.
अतर्षि एक के बाद एक अज्ञान की विनाशकता के चित्र दे रहे हैं। पूर्व गाथा में अज्ञानी सिंह की कथा का संकेत किया था। यहां पर भी सिंह और सर्प का उदाहरण दिया गया है।
सर्प के बिल के निकट सिंह सो रहा था। अचानक बिल में से सर्प निकला और उसने सिंह को उस लिया । इधर पीडा से उत्तेजित होकर सिंह ने भी अपने नुकीले पंजों से सर्प को नोंच डाला । सर्प समाप्त हो गया। इधर सिंह के शरीर
विष फैलने लगा। कुछ देर के बाद ही उसने दम तोड दिया । मन का अज्ञान ही दोनों को ले बैठा । अज्ञानी आत्माएँ हिंसा और प्रतिहिंसा के द्वारा दोनों ही विनाश को प्राप्त करते हैं ।
टीका :- सिंहश्च भुजंगश्श्राज्ञानविमोहितो माहदेश निपातेन द्वावपि विनाशं गताविति । का कथेति न ज्ञायते । अज्ञान से विमोहित सिंह और सर्प ग्राह और देश के निपात से दोनों ही विनाश को प्राप्त हुए। किन्तु यह कथा अज्ञात है ।
सुप्रियं तणयं भद्दा, अण्णाणेण विमोहिता ।
माता तस्सेव सोगेण, कुछ तं चेत्र खादति ॥ ८ ॥
अर्थ :- वह सुप्रिय की माता भद्रा अज्ञान से विमोहित बनती है। माता उसी शोक से क्रुद्ध होकर उसका भक्षण करती है ।
गुजराती भाषान्तर :
તે સુપ્રિયની માતા ભદ્રા અજ્ઞાનથી મોહ પામે છે, માતા તેનાજ શોકથી ક્રુદ્ધ બનીને તેનુંજ લક્ષણ કરે છે.
अज्ञान के अन्धकार में मटकती हुई आत्मा किस कण क्यों कर डालती है, के लिए कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। एक क्षण पहले जिसके अभाव से शोक में आकुल हो रहा था जब वही वस्तु सामने आ जाती है वह उससे नफरत करने लगता है। अब उसकी उपस्थिति ही उसके लिए असह्य हो जाती है। कितने इलके हैं मानव के सुख और दुःख । इंग्लिश का विचारक बोलता है:
shall see that When you are sorrowful, look again in your heart, and you in trath you are weeping for that which has been your delight. -खलील जिब्रान । जब तुम शोक में डूबे हुए हो तो अपने अन्तर में झांको, तब तुम को ज्ञात होगा कि तुम उसी के लिए रो रहे हो जो एक दिन तुम्हारे प्रसन्नता का हेतु बनी हुई थी ।
इससे बढ़ कर अज्ञान क्या होगा ? जिसके अभाव में रो रहे थे उसके सद्भाव में भी रोने लगे। पार्थिव पदार्थों का आकर्षण ही अजीम होता है । मनुष्य उसके अभाव में आकुल रहता है, उसके प्राप्ति को तड़प रहता है। पर जब वह वस्तु मिल जाती है तब वह आकर्षण उसमें नहीं रह जाता है । कभी कभी तो मनुष्य उससे घृणा भी करने लगता है। भईवर्षि मानव मन की इसी वृत्ति को कहानी द्वारा समझाते हैं ।
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माता भद्रा अपने प्रिय पुत्र के वियोग में इतनी विठ्ठल हो जाती है कि आत्म हत्या कर लेती है। और वह अगले जन्म में सिहिंनी बनती । जब उसी का पुत्र उसके सामने आता है तब कुपित हो कर पंजे से चीर कर उसका भक्षण कर जाती है । यह अज्ञान की ही विडंबना हैं कि एक दिन भी जिसका वियोग नहीं सहन कर सकी थी, आज उसी का खून पीने मैं एक रोम में भी नहीं कंपकंपी छूटती है ।
यह भद्रा कौन है और उसका पुत्र कौन है, इसका पता नहीं चलता है। किन्तु इसी रूप में सुकोशल और उसकी माता सहदेवी की कथा प्रसिद्ध है। नाम परिवर्तन के साथ यह वही कहानी है। कछू नहीं जा सकती है।
टीका :- सुप्रियं तनुजं मावा भद्रा नामाऽज्ञानविमोहितात् प्रतिबोधशोषं नात्मघातं कृत्वा व्याधी भूता । क्रुद्धा सत्यभिरपाखादीदिति । सुकोशलमासह देवीकथा, सा तु किमिहाधिक्रियते म देति शक्यते । गतार्थः ।
विष्णासो ओसहीणं तु, संजोगाणं व ओयणं !
लाहणं या वि विजाणं, अण्णाणेण ण सिज्झति ॥ ९ ॥
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