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________________ १११ इक्कीसयां अध्ययन टीका:-दीपे पातः पतंगस्य कौशिकारः पक्षिणो अन्धन किंपाकफलमक्षणं च त्रीण्येताम्यज्ञानस्य निबन्धमानि भवन्ति । गतार्थः। बितियं जरी दुपाणथं, दिट्टो अपणाणमोहितो। संभग्गगातलट्ठीउ, मिगारी णिधणं गओ ॥६॥ अर्थ:-अज्ञान में मोहित सिंह पानी में दूसरे सिंह को देख कर कूप में कूद पडता है। परिणामतः देह के भन्न होने पर मृत्यु को प्राप्त करता है ।। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાનથી મહાન્ય થએલો સિંહ પાણીમાં બીજા સિંહને (પિતાને જ પડછાયો) જોઈને કુવામાં કુદી પડે છે, પરિણામે શરીર ભાંગવાથી મરણ પામે છે. ___अज्ञान के कटु परिणाम के रूप में पूर्व माथा में कुछ उदाहरण दिए गए हैं। यहां पर भी अईतर्षि एक लोक प्रसिद्ध उदाहरण देते हैं। जो कि हितोपदेश में भी आया है। संक्षेप में वह इस प्रकार है : एक बार एक वृद्ध सिंह समस्त बन के हिरण और शुगाल वृन्द का संहार करने लगा । पशुओं की सभा ने एक दिन यह प्रस्ताव वनराज के सामने पेश किया कि उनके लिए प्रति दिन एक पशु मेज दिया जाएगा। ताकि पशुमष्टि शीघ्र ही समाप्त न हो सके । एक दिन एक शुगाल (सियार) की बारी आयी। उसने सोचा कि पीडा की जल को ही समाप्त कर देना चाहिए। वह जानबूझ कर ही कुछ देर से पहुंचा । वृद्ध सिंह ने क्रोधाक्रान्त हो तीन स्वर में पूछा, कि "हेर क्यों हरे गई। चालाक शृगाल बोला कि मैं तो शीघ्र ही आरहा था, किन्तु राह में एक दूसरा सिंह मिल गया। उसने मुझे रोकते हुए पूछा कि कहां जा रहा है? मैं ने कहा कि 'मैं वनराज के यहाँ जा रहा हूं। वह शेला कि 'वह तो बूढा हो गया। बनराज तो मैं हूं। सिंह इन शब्दों को सुनते ही आगबबूला हो गया। उसने कर्कश शब्दों में कहा कि 'कौन नया वनराम प्रकटा है ! चलो, मुझे दिशा में एक ही पार झालंगा। चतुर शुगाल आगे हो लिया। पीछे पीछे धनराज महोदय उमडते, फड़कते और एक ही ग्रास में अपने प्रतिद्वन्द्वी को उतार जाने का स्वप्न देखते हुए चले जा रहे थे । शमाल ने कुछ दूर जाकर झाडियों में झांका और पूंछ हिला कर कहा कि 'यहा पर तो नहीं है। मया कहां? मैं अभी देख कर बात कर के गया हूं। ऐसा लगता है कि हमारे आने की भनक उसके कानों में पड़ गई और वह कहीं छिप गया है । भाप के नाम को सुन कर ही सन के प्राण झोपते हैं।' सिंह के अहंकार में नया वट आगया । बोला कि 'शेखी तो खूब बधारी पर अप दुम दबा कर निकल गया। इस बूढे के पंजों में कितना बल है इसका बच्चू को पता नहीं है ! । एक ही पंजे से चीर दूंगा।' झाडिया में इधर उधर घूम कर इसमाल लौट आया। वापस आकर खुशामद के शब्दों में बोला कि 'आप के डर से ऐसा छिप गया है, कहीं पता ही नहीं लग रहा है। पर आज उसे छोड़ना नहीं है।' उसी समय पास के कुए के निकट भाकर सफलता के आवेग में चिल्लाया "मिल गया, मिल गया" । माता कहां । देखिए, इस कुएं में जाकर छिप गया है। आखिर जान सब को ही प्यारी होती है।' सिंह एक ही छलांग में कुएं के निकट आ गवा । कुएं में झोका लो शेर की-सी भाकृति दिखाई दी। बह गर्जा कि 'कामर कहीं का, निकल बाहर, क्या कहा कि नहीं निकलँगा पर आज तुम को मैं पाताल तक भी नहीं छोडूंगा। अभी आया' ऐसा कह कर वनराज ने कुएं में छलांग मार ही हो । शुगाल मुस्करा दिया और कहा कि अपनी छाया को मिटाने चला और वनराज स्वयं ही मिट गया। टीका:-भज्ञानमोहितो वृद्धसिंहः कथाप्रसिद्धो विसीयसिंह उदपानस्थं उधमान् संभमगात्रयष्टिर्निधनं गतो मृतः । गताः । मिगारी य भुथंगो य, अण्णाणेण विमोहितो। गाहादसाणिवातेणे, विणासं दो वि से गता ॥७॥ अर्थ :-अज्ञान से विमोहित सिंह और सर्प पंजे की पकड और देश के प्रहार से नष्ट हो गये।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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