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________________ इसिभासिन्याई जैन दर्शन अंधविश्वासियों के नहीं अपितु अनंत ज्ञानियों के धर्म को स्वीकार करता है। इसीलिये मंगलपाठ में बोला जाता है केवलप्रज्ञप्तिधर्म को स्वीकार करता हूँ। जो धर्म बुद्धि की तराजु पर तुला हुआ होता है वही तत्व और अतत्व का निश्चय कर सकता है जैसे हिमालय पर हुआ वृक्ष चारों ओर बहते हुए झरनों की तरी पाकर विकसित होता है। अथवा बर्फ सह करी के बीच खेदा वृक्षर हरितिम सौन्दर्य में मुस्कुरा ऊठता है हिमालय की तेजोमयी औषधिय मानव को नवीन स्फूर्ति और तेज प्रदान करती है इसी प्रकार वीतराम देव के शासन के निकट रहा हुआ आत्मा सात्विक बुद्धि और निर्मल प्रज्ञा के द्वारा आत्मा स्वरूप को पहचानता है। जैसे शुद्ध और तेजपूर्ण औषध शरीर को स्वस्थ और पुष्ट बनाती है इसी प्रकार हृदय की विशुद्धि प्रज्ञा में विशुद्धि लाती है और स्वस्थ बुद्धि में गंभीरता प्रवेश करती है। टीकाः-सर्षशासन पुरुषेण प्रा यदि तदा प्रतिजम्भते-प्रकटीभवति यथा तरूणां चारुरागमो मनोहःप्रादुर्भाषो दृश्यते पुरुषैः हिमयम्त मासवभिः। सत्वादीनि वर्धनो यथा सुधाक्रान्तं सुप्रयुक्तमोषधं अलवीय योजयति शरीरेपोति शेषःगता:। पयंडस्स णरिवस्स कतारे देसियस य। आरोग्गकारणो चैव आणा-कोहो दुहावहो ॥ ३५ ॥ सासणं जं परिंदाओ कंतारे जे य देसगा। - रोगुग्घातो य वेज्जातो सध्वमेत हिप हियं ॥ ३६॥ अर्थ-प्रचण्ड राजा का तथा कान्तार अर्थात् संसार में गुरु का और आरोग्यकारक वैद्य की आशा का पालन न करना दुःख का कारण है। राजाओं का शासन, वन के मार्गदर्शक अथवा संसार बन के मार्गदर्शक गुरु उपदेश और वैद्य मे रोग का उपचार यह सब हितप्रद है। गुजराती भाषान्तर: બલવાનું રાજાને હુકમ, કાન્તાર એટલે આ ભવય જંગલમાં ગુસની અને આરોગ્ય-દાયક વૈદ્યરાજની અજ્ઞાનું પાલન ન કરવું એ દુઃખનું કારણ થાય છે. રાજાઓનું શાસન, જંગલમાં માર્ગદર્શન કરનાર, સંસારરૂપી જંગલમાં ગુનો ઉપદેશ અને વૈદ્યની (દરદની) સારવાર તેમજ પરહેજીની સૂચના આ બધી વસ્તુઓ હિતપ્રદ છે. तेजस्वी राजा का आदेश न पालना दुःख को निमंत्रण देना है। शान्त प्रकृति के राजा का मात्रा भंग इतना कष्ट प्रद हरा नहीं होता अब कि उग्र खमावी राजा अपनी आशा को विफल जाते देख उप्रतर बन सकता है और कठोर दंड दे सकता है। बीहक वन में मार्गदर्शक का आदेश न मानना अपने आपको विडम्बना में डालना है। इसी प्रकार वैद्य के पथ्यापथ्य का आदेश न मानकर हम रोग को दूना कर लेते हैं। इसी प्रकार स्वार्थ रहित जीवन बितानेवाले सस्तों के उपदेश की अबहेलना करके हम उनका कुछ न बिगाड़ेंगे, किन्तु अपने जीवन की सीधी राह में कांटे बिखेर लेंगे। दुनिया ने महापुरुषों को पूजा है, उन्हें सुस्वादु भोजन दिया है, सुन्दर वस्न्च दिये हैं, रहने के लिये विशाल भवन दिये हैं। मरने के बाद उनकी मूर्ति बनाकर पूजा है. उनकी चरण धूल को मस्तक पर चढ़ाया है। उनके पैर छ पिया है। उनके उपदेशों को शास्त्र वाक्य मानकर कंठस्थ किये हैं। उनकी स्मृति में मसे ग्रन्थ तैयार किये हैं। उनके लिये मानव लड़ा गिड़ा भी है। उसने सब कुछ किया किन्तु एक नहीं किया वह पथा कि उसकी बात नहि मानी। और इसी लिये तो विश्व की अशान्ति समाप्त नहीं हो सकी। रीका:-प्रचण्डस्य फरम्य नरेन्द्रस्य कान्तारे संसारे च देशिकस्य गुरोस्तथा वैद्यस्यारोग्यकारण भाशा क्रोधारोग्याच प्रशस्तोग्राज्ञा दुःखावहा भमनोज्ञा दृश्यते परन्तु यन् नरेन्द्राद यच्च ये संसार देशिकास्तेभ्यः शासन वधावा रोगोदातो रोगोम्मूलनं सर्वमेतद्धिते हितमतिहितं भवति । गतार्थः । १. केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि। -मंगलपाठ, आवश्यक सूच।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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