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इसि - भासियाई
गुजराती भाषान्तर :
સાપ જેમ ક્રિમવંશાં જન્મેલ મનગમતો ખોરાક લઈ તેની ઉલટી કરે છે અને તે ( વમન કરેલું ) જ ફરી ખાઈ નાખી પોતે ધિક્કારનો ભોગ થઈ પડે છે, તેજ પ્રમાણે જીનેન્દ્રદેવની આજ્ઞાનું પાલન કરવાથી આત્મશલ્યોનો ઉદ્ધાર થઈ જાય છે. સંસારના તાપથી છુટી જઈ ને સુખી બની નય છે તે જ સાચું સુખ કહેવાય છે.
साधक भ्रमण जीवन को अपनाकर आगे जीव की पदार्थों के आकर्षण को लेकर पुनः संसार की संसक्ति में न फँसे। क्योंकि साधना से वासना की ओर लौटन साधक जीवन की बहुत बड़ी पराजय है । एक योद्धा बुद्ध के लिये तैयार होता है। कटिबद्ध होकर कवच धारण कर सिंहनाद करता है। इतनी वीरता से आगे बढने बाद यदि वह युद्ध भूमि से पलायन करता है तो उसके लिये बहुत बुरी पराजय होगी I
साधक गंधकूल का सर्प न बने, जो उगले हुए विष को पुनः निगल जाए। वह अगंधन कुल का नाग हैं जो वाराना के विष को उगल देने के बाद हजार यंत्रणा देने पर भी यक विष को ग्रहण करने को तैयार नहीं होता। अगंधन कुल के सर्प का रूपक उत्तराध्ययन सूत्र में भी आता है। सती माथी राजमती साधना पथ से चलित रथनेमि को फटकार के स्वर में कहती हैअमं नाम को जाज्वल्यमान धूमकेतु के सदृश दुःसह आग में गिरकर भस्म होना स्वीकार है । किन्तु वह षमन किये हुए विप को वह पुनः स्वीकार नहीं करता। अतः तुम गन्धन कुल के सर्प बनकर वामित वासना को पुनः स्वीकार न कर' ।
यदि अगंधन कुल का सर्प भी अपने वमित विश्व को पुनः ग्रहण करले है तो वह अपने कुल गौरव को समाप्त करता है । इसी प्रकार रुक्निकुलोत्पन्न सर्प भी यदि सुन्दर भोजन करके उसका त्रमन करके पुनः खाता है वह धिकार का पात्र होता है । साधक अधनकुल का सर्प हैं। वह आग की ज्वाला में झुलसना मंजूर करेगा पर साधना के पथ से विचलित न होगा; क्योंकि उसने भोग उन पदार्थों को अशिव समझकर परित्याग किया है। यदि वह उन्हें पुनः स्वीकार करता है तो वह वमित पदार्थों का ग्रहण है ।
जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से योद्धरण संभव है। साधक इसका सम्यक् परिशलन करके इस दावानल अथवा प्रलिप्तता (संसक्ति) से निकल शाश्वत शान्ति पा सकता है ।
टीकाः पथा योधो वज्र-चिह्नो वर्मारूढः स्थिरायुधः सिंहनादं विमुच्य पलायमानो न शोभते किन्त्ववमन्यत । गच्छति, यथा नागो भुजंगो महाविषोऽगन्धनकुले जातः स्वविषं मुषावा भूयस् तत् वियन् लाघवं याति यथा च सर्पकुलोद्भूतो रमणीयमपि भोजनं वान्तं पुनर्भुजन् धिक् धिक्कारस्य भाजनं भवति । अगन्धानास्तु नागा मरण व्यवस्यन्ति न वान्तमापिवन्तीति विपरीतमाविशति जिनदासो दशबैकालिक चूण; एवं जिनेन्द्राशया "सन्वक्ष्यमात्मतस् तपसा शल्योरणमेव तथा प्रदद् गृहासितं सुखी सुहित वा भवति । सुखं पुत्र तत् । गतार्थः ।
इंदासणी ण तं कुज्जा दित्तो वण्ही अणं अरी ।
आसादिज्जत संबंधो जं कुज्जा रिद्धिगारवो ॥ ४३ ॥
अर्थः- इन्द्र का वज्र, प्रज्वलित अभि ऋण और शत्रु इतनी हानि नहीं पहुँचा सकते जितना कि मन से आस्वादन लिया जाता हुआ ऋद्धि का गर्व ।
गुजराती भाषान्तर:
ઈન્દ્રનું વસ્ત્ર, પ્રવલિત અગ્નિ, ઋણ અને દુશ્મન આટલું નુકસાન કરી નહીં શકે, જેટલો કે મનથી સ્વાદ લઈ લીધેલો લક્ષ્મી નૉ અહંકાર !
कहा जाता है इन्द्र का बज्र मत्यों की मृत्यु की शरण पहुंचाता है और अमर्त्य को दारुण दाद पहुँचाता है। प्रदीप्त आग ऋण और शत्रु ये सभी व्यकि को संकट के सागर में डाल सकते हैं, पर अतर्षि कह रहे हैं कि ये सभी आत्मा को उतनी पीड़ा नहीं पहुंचा सकते जितना कि मन में घुसा हुआ ऋद्धि का गौरव । गौरव का रौरव जिसके मन में धधक रहा है उसके गुणों की राख बना देती है। संभुम चकती और रावण जैसे इस गौरव की आग में ही तो राख होगये । हिटलर और मुसोलिनी के गर्व ने जर्मन और इटली का पतन करवाया था ।
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एक विचारक ने ठीक कहा है ऐ नदी तेस पूर तीन दिन में उत्तर जाएगा, किन्तु अपनी संपत्ति के मद में तूने जो विनावालीला खड़ी की है वर्षों तक दुनिया उसे भूल न पाएगी। फुटबल इसी लिये ठोकरें खाता है कि उसके पेट में मगरूर की हवा भरी रहती हैं। बाहुबली के छोटे से गर्व ने उनके लिये कैवल्य के दरवाजे बन्द कर दिये थे। उनके अहंकार
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तुलना मैं हमारा अहंकार हजार गुना अधिक होगा और फिर हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं ।
प्रभु महावीर से एक बार गौतम खामी ने पूछा था : 'प्रभो ! आपके अनुग्रह से मुझे चौदह पूर्व और चार ज्ञान प्राप्त हैं, केवलज्ञान में अब कितना शेष है ?' तत्र प्रभु ने कहा था 'गौतम! असंख्य योजन विस्तृत स्वयंभूरमण सागर में से एक
१ पत्र दे जलियं जीवं धूमकेचं दुरासयं । नेच्छन्ति वन्तयं भोत्तुं कुले जाया गंधणे 1