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________________ २९२ इसि भारियाई जबकि दुःख अहंकारी को भी नत्र बनाता है। वैराग्य जन्मभूमि भी बैराग्य ही है। दो सम मुखियों में ईर्ष्या जन्म लेगी, जबकि दो समदुःखियों में सहानुभूति पैदा होती है । इस लिये अतर्षि कह रहे हैं साधक सुख के मोहक रूप में न उलझे । टीका:- सातकर्मे करणं दुःखकरं दुरन्तं भवति यथा समाई - शिंशुमारादिगर्भ सरो बुद्धं विकसितोपलं, मया स्त्रिया वा कामिनोनुयोजितं विषं सामिषं वा नदीस्रोतो मरस्य प्लवन योग्यम् । साताकर्म=अर्थात इच्छित=स रूप कर्म तुरन्त होता है जैसे जिस सरोवर में कमल खिल रहें किन्तु उसके भीतर बड़े मगर हैं। स्त्री की सुन्दरता में भी कभी विष छिपा रहता है। रूपलिप्सा में आकुल कामान्ध व्यक्ति को वह कभी कभी अपने हाथों से विष दे देती हैं और रूप- मधुरिमा मृत्यु का निमंत्रण बन जाती है। जिस नही के स्रोत में मांस के टुकडे बिखेरे गये हैं वह मछलियों की कीड़ा के योग्य है और मछलियाँ मास टुकड़ों से आकृष्ट हो वहां आती है; किन्तु दूसरे ही क्षण वे जाल में फंस जाती हैं। कोसीक व्याsar तिक्खो भासच्छण्णो व पावओ । लिंगवेसपलिच्छपणो अजयच्या तहां पुमं ॥ ४५ ॥ अर्थः- जैसे तीक्ष्ण तलवार कोष म्यान में रहती है और अभि भस्माच्छादित रहती हैं इसी प्रकार अजितात्मा पुरुष भी नानाविध लिंग और वेश में छिपे रहते हैं । गुजराती भाषान्तरः જેમ તીક્ષ્ણ ધારવાળી તલવાર હમેશા કોશ(મ્યાન ) માં રહે છે, અને રહે છે તેજ પ્રમાણે અજિતાત્મા (જેની પન્દ્રિયો પોતાના કાબુ બહાર છે અહારના વેશ અને લિંગોથી સંતાડેલો હોય છે. ગ્ન પણ ભસ્મ (રાખ) થી ઢંકાયેલ તેવો) માસ અનેંક તરહના भ्यान तलवार नहीं है । उस सुन्दर से म्यान के नीचे वीक्ष्ण तलवार छुपी रहती है और राख आग नहीं है, वह तो उसके नीचे दबी हुई है, इसी प्रकार शरीर आत्मा नहीं है। आत्मा शरीर में है पर शरीर से भिन्न है। उपनिषदों में शरीर को रथ बताया गया है और आत्मा को सारथि । यजुर्वेदीय कठोपनिषद में रथ और सारथी का सुन्दर रूपक दिया गया है वह यों है— शरीर रूप रथ में आत्मा रथी हैं, बुद्धी सारथि है, मन लगाम हैं, इन्द्रियां घोडे और विषय उनके विचरने के मार्ग हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा भोग करता है। जो प्रज्ञा संपन्न होकर संकल्पवान गन से स्थिर इन्द्रियों को मार्ग में प्रेरित करता है वही मार्ग के अन्त तक पहुंचता है जहां से पुनः लोटता नहीं है'। साधक आत्मा के स्वरूप को समझे । लिंग और वेश के बंधनों से ऊपर उठकर शुद्ध आत्मा के दर्शन करे। सत्य का शोधक लिंग और देश के आचरण को हटाकर पवित्र आत्मा को खोज लेता है । 1 टीका:- कोशीकृतः कोदो निहित इवासिस्तीक्ष्णो भस्माच्छन्न इव पावकस्तथा लिंगवेशपरिच्छन्नः कुसाधु रञ्जितात्मा । टीकाकार कहते हैं - कोश म्यान में तलवार रहती है और भस्म के नीचे जाज्वल्यमान आग रहती है. इसी प्रकार संयम के वेष के नीचे असंयमी आत्माएँ रहती हैं। लिंग और देश तो संयमी साधक का है, जिनके मनमें वासना की ज्वाला शान्त नहीं हुई हैं ऐसे व्यक्ति दुनिया के साथ छल करते हैं और अपने आपको भी धोखा देने की चेष्टा करते दुनिया को धोखा दिया जा सकता है; किन्तु अपने आपको नहीं । जो देश के प्रति वफादार नहीं है वे दुनिया के सबसे बड़े मक्कार हैं। चोर चोर बेश में रहता है तो इतना बुरा नहीं हैं जितना कि बहू एक सभ्य व्यक्ति के वेश में आता है। ऐसे गोमुखी व्याघ्रों से सावधान रहने के लिये अर्हता प्रेरणा दे रहे हैं। कामा मुसामुही तिक्खा, साता कम्मानुसारिणी । तन्हा सातं च सिग्धं च तव्हा छिंद्रति देहिणं ॥ ४६ ॥ अर्थ::- काम तीक्ष्ण मृषामुखी कैची (असत्यवादी ) है सातकर्मानुसारिणी है । किन्तु यह तृष्णा देहधारियों से शांति और तृष्णा शीघ्र काट देती है । गुजराती भाषांतर: કામ એટલે તીક્ષ્ણ વાસન, મૃષામુખી એટલે કાતર ( ખોટું બોલનાર ) આ સાતકર્માનુસારી છે પણુ આ તૃષ્ણા ( તરસ ) શરીરધારીઓની શાંતિ અને તૃષ્ણાને તરત જ નષ્ટ કરી દે છે. मन की वासना वीण मृषामुखी है अथवा काम मृषामुखी है। अर्थात जहां काम है वहां असत्य अवश्य रहता है। कामी व्यक्ति अपने पाप को छिपाने के लिये सो सो झूठ का आश्रय लेता है। तृष्णा सुख चाहती है। तृणाल अपनी सुख और शांति के लिये संपत्ति एकत्रित करता है। अनंत अनंत काल तक के लिये संपत्ति एकत्रित करना चाहता है। किन्तु यह तृष्णा देहधारियों की शांति को अविलम्ब भंग कर देती है। क्योंकि जिस मोटर में ब्रेक नहीं है वह ऐक्सीडेन्ट के खतरे से खाली नहीं है तो १ आत्मानं रथिनं विद्धिं शरीर रथमेव तु । - कठोप० ३।३.
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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