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________________ २७२ पैंतालीसवाँ अध्ययन यदि हाथों से पाप हो गया है तो उसके प्रति पश्चात्ताप होना चाहिये और पाप की प्रवृत्ति से दूर ऊपर उठने की प्रवृत्ति होनी चाहिये । पशु भी पानी में गिर जाता है तो वह भी उससे निकलने के लिये छटपटाता है, किन्तु जो मानन होकर भी अशुभ प्रवृत्ति के बीच से निकलने की चेष्टा न करे वह पशु जगत से ऊपर नहीं कठा है फिर आकृति भले मानव की क्यों न हो। एक और इंग्लिश विचारक बोलता है Manlike it is to fall into sin, findlike it is to dwell the rein, Christlike it is, For sin to grieve, Godlike it is all sin to leave-लाँगफेलो. पाप में पहना मानव समाव है, उसमें डूबे रहना शैतान स्वमात्र है, उस पर दुःखित होना संत स्वभाव है और पापों से मुक्त होना ईथर स्वभाव है। अईतर्षि उसी ईश्वर खभान हैं कि प्राप्ति के लिये पाप के त्याग की प्रेरणा देते हैं। टीका:-सरसं नीरं स्वच्छ प्रति धावन्तं वष्ट्रिणं शृंगिणं श्वापदं दोपभीरुणो विवर्जयनित एवं पापं विवर्जयेत् । गतार्थः । बारकम्मोरयंप मुक्ताले मुस्खायणं दोसादोसोदथी चेय पापकजा पसूयति ॥ १३ ॥ अर्थः—पाप कौनयको प्राप्त करके आत्मा दुःख से और दुःख प्राप्त करता है। दोषी व्यक्ति और दोषों को प्रहण करनेवाला पाप कायों को जन्म देता है। गुजराती भाषान्तर: પાપકોના ઉદયને પ્રાપ્ત કરી જીવ દુઃખથી બીજા દુઃખને પામે છે, દોષી માણસ બીજા દોનો સ્વીકાર કરનાર પાપકર્મોને જન્મ આપે છે. अशुभ विपाकोदय के रामय आत्मा दुःख का अनुभव करता है, पर एक दुःख नये दुःखों की परम्परा लेकर आता है। दुःख आने पर यदि मन शान्त है तो कर्मों का और तज्जन्य दुःख का क्षय करता है, किन्तु विपाकोदय के समय मन अशान्त हो गया और वह निमित्तों पर आकोश करने लगा तो दुःख भोग के समय नये कर्मों का उपार्जन कर लेता है साथ ही भविष्य के दुःखों की नींन डाल देता है। इसीलिये कहा गया है कि दोषी व्यक्ति नये दोषों को ग्रहण करता है और इस रूप में वह पाप कार्यों को जन्म देता हैं। टीका:-पापकर्मोदयं प्राप्य दुःखेन दुःखभाजन दोषेण च दोषोदयी पापकर्माणि प्रसूयते । गत्तार्थः । उन्विवारा जलोहंता तेतणीय मतोद्रुितं । जीवितं वा वि जीवाणं जीवंति फलमदिरं ॥१४॥ अर्थ-भूकंप से, जल सगृह से, आग से अथवा तृण समूह से मरकर 'मी पुनः जीवों का जीवन आरंभ हो जाता है। फल का आश्रयस्थान कर्म यदि विद्यमान हैं तो जीवन भी चालू रहेगा। गुजराती भाषांतर: ભૂકંપશી, પાણીના પૂરથી, આગથી, ઘાંસના રાશિથી (બળીને પણ) જીવોનું જીવન ફરીથી શરૂ થાય છે. ફલનું આશ્રયસ્થાનરૂપી કમ જે અસ્તિત્વમાં હોય તે જીવન પા ચાલુ રહેશે. सौ पचास वर्ष का जीवन विताकर प्राणी जब चिरनिद्रा में सो जाता है, तो स्थूल दृष्टि में ऐसा लगता है, कि जीवन समाप्त हो गया और ऐसा भी अनुभव होता है। भलाई की जिन्दगी बितानेवाले के भाग्य में दुःख ही दःख है और दूसरों को सतानेवाला उनके आसुओं से क्रीला करनेवाला मौज की जिन्दगी बिताता है। तय प्रश्न होता है, फिर पाप और पुण्य जैसी वस्तु कहां रही। और शुभ का प्रतिफल शुभ रहेगा और अशुभ का अशुभ इस सिद्धान्त की सत्यता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत गाथा में दिया गया है। भूकम्प, जल या अग्नि के द्वारा जीवनलीला समाप्त हो जाती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता है कि जीवन तत्व समाप्त हो गया। जीवन के नाटक का एक दृश्य समाप्त हुआ है पर पूरा नाटक नहीं । एक दृश्य को देखकर किसी निर्णय पर पहुंचना गलत है। सीता हरण के दृश्य को देखकर अच्छे कार्यों के
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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