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________________ २८० इसि-भासियाई प्रति विश्वास खो देना एक गलती है। दृश्य बदलते हैं पर दृष्टा नहीं बदलता। इसीलिये एक जन्म के कृत पुण्य और पाप अन्य जन्मों में भोगने पड़ते हैं और इसीलिये अच्छी जिन्दगी बितानेवाले को ऋदम कदम पर दु:ख सहना पड़ता है। यह दुःख वर्तमान जीवन का नहीं, वियत जन्म का है। . अतः अर्हतर्षि कह रहे हैं दुर्घटनाओं से जीवन समान हो जाए पर आत्मा समारा नहीं होता और जन्म मृत्यु की परम्परा तब तक चलती रहेगी जब तक कि 'फलामन्दिर कम मौजूद रहेंगे। टीका:-बापाराजलौघान्तात् तेजन्या वा दग्धात् तृणागुच्छामृलोस्थित उक्तस्थानेभ्यो मृत्वा प्रस्थागतमनश्वरं जीवानां जीवितं जीवादेष भवति फलमन्दिरं धान्यागारं कर्मफलभाजनमिति इलेषः । अर्थात्-पृथ्वी के पार से जलराशि में अग्नि से जल कर तृप गुच्छ आदि शे मृत्यु पाकर पुनः आये हुए अनश्वर जीवों का जीवन चालू रहता है 1 बह जीरन फल का स्थान धान्यागार कर्म फल का पात्र होता है जब तक फल का स्थान धान्यागार मौजूद है तब तक उससे धान्य की समाप्ति नहीं होती। उसमें धान्य डाला जाता है और निकाला जाता है अथवा उस धान्य को बोने पर वह सहस्राणित प्रतिफलित होता है और इस रूप में वह धान्यागार कभी भीण नहीं हो सकता। इसी प्रकार आत्मा कर्म बांधता है उन्हें क्षय भी करता है, किन्तु अपनी रागात्मक परिणतियों के द्वारा पुनः कर्म का बन्धन करता है इस रूप में कर्म का धान्यागार अक्षय रहता है यह एक क्षेष है। देजा हि जो मरंतस्स सागरंतं वसुंधरं । जीवियं वा वि जो देजा जीवितं तु स इच्छती ॥ १५ ॥ अर्थ:-मरनेवाले को सागर पर्यन्त पृथ्वी या जीवन दिया जाए तो वह ( मरनेवाला) जीवन ही चाहेगा । गुजराती भाषान्तर: મરનારને (છેલ્લી હાલતમાં) એમ પૂછીએ કે દર્યા ના છેડા સુધી પૃથ્વી તને જોઈએ કે જીવવું પસંદ છે તે તે ( મરનાર માણસ પણ) બેમાંથી જીવન (મારે જીવવું જ ) પસંદ છે એમ કહેશે, - हर प्राणी में एक महत्वपूर्ण इच्छा है, वह है जीने की। यह एक ऐसी कामना है जो मृत्यु के प्रथम क्षण तक प्राणी को छोडती नहीं है। मौत की सजा प्राप्त व्यक्ति को ससागरा पृथ्वी और जीवन दो में से एक का चुनाव करने के लिए कहा जाए तो यह जीवन ही चाहेगा। आगमवाणी बोलती है-प्राणिमात्र जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, अतः निन्थ घोर प्राणि का परित्याग करते हैं। प्रस्तुत गाथा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक से कितना साम्य रखती है। मर्यमाणस्य हेमादि राज्यं चापि प्रयतु । सदनिष्ट परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति ॥-महाभारत । टीका:-यदि यो म्रियमाणस्य वसुन्धरा पूथ्वीं सागराम्तां दद्याज्जीवितं बाइनयोरेकतरं वियस्वेति ततः स मरणभीरु वितमिच्छति ।। गतार्थः । पुत्त-दारं धणे रजं विजा सिप्पं कला गुणा। जीविते सति जीवाणं जीविताय रती अयं ॥१६॥ अर्थ:-पुत्र, पत्नी, धन, राज्य, विद्या, कला और गुण ये सभी प्राणियों के जीवित होने पर उनके जीवन को आनंद दे सकते है। गुजराती भाषान्तर: છોકરો, બેરી, ઘન, રાજ્ય, વિદ્યા, કલા અને ગુણ એ બધાં પ્રાણિઓ જીવતા હોય ત્યાં સુધી તેના જીવનને આનંદ પહુંચાડે છે. पूर्व गाथा में बताया गया था कि प्राणी ससागर। पृथ्वी को छोडकर भी जीना पसन्त करता है । उसका हेतु यहां दिया है। पुत्र धन विशाल साम्राज्य का सभी जीवन के लिये है 1 जीवन है तभी तक इनका सद्भाव है। दो आखें मूंद जाने पर चक्रवती के साम्राज्य का भी क्या मूल्य है। इसीलिये मानव संपत्ति और जीवन के तोल में जीवन को महत्व देता है। १. सन्चे जीवा वि इच्छन्ति जीविउंन मरिजिउं 1 सम्हा पाणिवहं धार निर्गथा बजयन्ति ।। उत्तरा. अ. ३५
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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