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पति-भरसियाई विदुणा अरहता इसिणा दुइतं
सम्म रोग-परिणाणं, ततो तस्स विणिच्छितं । रोगोसह परिगणाणं, जोगो रोगतिगिच्छितं ॥ ३ ॥ सम्म कम्मपरिणाणं ततो तस्स विमोक्खणं ।
कम्म-मोपख-परिणाणं, करणं च विमोक्खणं ॥४॥ अर्थ:-विदु अईनर्षि इस प्रकार कहते हैं, रोग मुक्ति के लिए सर्व प्रथम रोग का परिज्ञान होना चाहिए। तत्पश्चात् उसका निदान हो । साथ ही रोग के औषध की गी पहचान चाहिए। तभी उसके रोग की चिकित्सा संभावित है। यही बात कर्म विमुक्ति के लिए भी है। पहले सम्यक रूप से कर्म का परिज्ञान हो, बाद में उसके विमोक्ष का ज्ञान अपेक्षित है। कर्म और मोक्ष का परिज्ञान और उसका आवरण आत्मा को मुक बना सकता है। गुजराती भाषान्तर:- વિદુ અતિર્ષિ આ પ્રમાણે કહે છે કે રોગથી મુક્ત થવા માટે સર્વ પહેલાં રોગનું પૂર્ણ જ્ઞાન કરી તે પછી તેનું નિદાન થાય. સાથે સાથે રોગનાશક ઔષધના ગુણધર્મનું જ્ઞાન હોવા જોઈએ, ત્યારે જ રોગની ચિકિત્સા કરી શકાય. આ જ વાત કર્મ-વિમુક્તિ માટે પણ અગત્યની છે. પહેલા કર્મનું જ્ઞાન સારી રીતે કરી લેવા જોઈએ. પછી તેનો વિમોક્ષ એટલે છુટકારો મેળવવાનું જ્ઞાન સદંતરરૂપ છે. કર્મ અને મોક્ષનું ઊંડું જ્ઞાન અને તેનું આચરણ આમાને भुशी मनावीशले.
रोगोपशमन के लिए सर्व प्रथम यह आवश्यक होगा कि व्यक्ति को इस बात का अनुभव हो, कि मेरे देह में किसी प्रकार का रोग है। उसके बाद दूसरा कदम होगा रोग की पहचान का। रोग है तो वह कौन-सा है ? साथ ही रोग के औषध का भी शान अपेक्षित है। कर्म से विमुक्ति के लिए भी चार चातें आवश्यक हैं । सर्व प्रथम यह विश्वास कि “कर्म है, कर्म से मोक्ष हो सकता है। कर्म और मोक्ष का स्वरूप विज्ञान और उस ज्ञान को जीवन में आचरण । जिसे यही अनुभूति नहीं है कि मैं बीमार है, वह आरोग्य की ओर बढ़ ही कैसे सकता है और जिसे यह अनुभूति नहीं है कि मैं कर्म से बद्ध हूं वह मुक्ति की राह पर कदम नहीं रख सकता है। साथ ही उसे यह भी विश्वास होना चाहिए कि आत्मा और कर्म पृथक हो सकते हैं । यही विश्वास आत्मा को इस दिशा में प्रयक करने के लिए प्रेरित करेगा। बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य इसी से कुछ मिलते-जुलते हैं। पहला दुःख है और दूसरा दुःख का हेतु है। तीसरा हान दुःखों का अन्त संभव है और हानोपाय दुःखों के अन्त करने का उपाय है।
मम्मं ससल्ल-जीचं च, पुरिसं या मोहयातिणं ।
सलुद्धरणजोगं च, जो जाणइ स सल्लहा ॥५॥ अर्थ:-जो ममत्व और सशल्य जीव को जानता है और दूसरी ओर विगत मोह पुरुष को जानता है और शल्य को नष्ट करने का योग जानता है वहीं शल्य को नष्ट करता है। गुजराती भाषान्तर:
જે મર્મસ્થળ અને સશક્ય છવને જાણે છે અને બીજી બાજુ વીતરાગ પુરુષને પણ જાણે છે અને શક્યને નષ્ટ કરવાના ઉપાય જાણે છે તે જ શકયને નષ્ટ કરે છે.
साधक एक ओर शस्य युक्त आत्मा को देखता है जिसके अन्तरतम की गुत्थियो दुर्भेद्य हैं जो न अपने प्रति स्पष्ट हो सकता है, न दूसरे के प्रति । दूसरी ओर मोह मुक्त पुरुष को देखता है जिसकी अन्तर्मुत्थियां बुल तुकी हैं, उसका सरल निश्छल वृदय साधक को आकर्षित करता है। साधक उन्हें देख कर अपने अन्तर्मन की गूढ ग्रन्थियों को निकाल कर निष्कपट हृदय से आलोचना करता है। निःशल्य साधक के मन, वचन और कर्म में एक रूमता आती है । शल्य नष्ट करने की साधना है ही निःशल्य बनती है। टीका:-मर्म सशस्यजीवं च पुरुष वा मोहघातिनं गुरुं शल्योद्धरणयोगच यो जानाति स शल्यहा। गतमर्थम् ।
बंधणं मोयणं चेव तहा फलपरंपर ।
जीवाण जो विजाणाति, कम्माणं तस कम्महा ॥६॥ अर्थ:-आत्मा के बन्धन और मोक्ष को तथा उसके फल की परंपरा को जो जानता है वही कर्म-श्रृंखला को तोड सकता है।